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ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 188/ मन्त्र 3
या रुचो॑ जा॒तवे॑दसो देव॒त्रा ह॑व्य॒वाह॑नीः । ताभि॑र्नो य॒ज्ञमि॑न्वतु ॥
स्वर सहित पद पाठयाः । रुचः॑ । जा॒तऽवे॑दसः । दे॒व॒ऽत्रा । ह॒व्य॒ऽवाह॑नीः । ताभिः॑ । नः॒ । य॒ज्ञम् । इ॒न्व॒तु॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
या रुचो जातवेदसो देवत्रा हव्यवाहनीः । ताभिर्नो यज्ञमिन्वतु ॥
स्वर रहित पद पाठयाः । रुचः । जातऽवेदसः । देवऽत्रा । हव्यऽवाहनीः । ताभिः । नः । यज्ञम् । इन्वतु ॥ १०.१८८.३
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 188; मन्त्र » 3
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 46; मन्त्र » 3
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 46; मन्त्र » 3
विषय - जातवेदा आत्मा का वर्णन।
भावार्थ -
उस (जात-वेदसः) जातवेदा, आत्मा की (देवत्रा) देवो, प्राणों के बीच में जो (हव्य-वाहनीः) ज्ञान और अन्नादि प्राप्त कराने वाली (याः रुचः) जो दीप्तियों के तुल्य अनेक कामनाएं हैं (ताभिः) उन सहित वह (नः यज्ञम् इन्वतु) हमारे यज्ञ को प्राप्त हो।
इसी प्रकार ‘जातवेदाः’ अग्नि (२) हमारे यज्ञ में आत्मा और प्रभु का ही प्रतिनिधि है। इति षट्चत्वारिंशो वर्गः ॥
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ऋषिः श्येन आग्नेयः॥ देवता—अग्निर्जातवेदाः॥ गायत्री छन्दः॥ तृचं सूक्तम्॥
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