ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 5/ मन्त्र 1
एक॑: समु॒द्रो ध॒रुणो॑ रयी॒णाम॒स्मद्धृ॒दो भूरि॑जन्मा॒ वि च॑ष्टे । सिष॒क्त्यूध॑र्नि॒ण्योरु॒पस्थ॒ उत्स॑स्य॒ मध्ये॒ निहि॑तं प॒दं वेः ॥
स्वर सहित पद पाठएकः॑ । स॒मु॒द्रः । ध॒रुणः॑ । र॒यी॒णाम् । अ॒स्मत् । हृ॒दः । भूरि॑ऽजन्मा । वि । च॒ष्टे॒ । सिस॑क्ति । ऊधः॑ । नि॒ण्योः । उ॒पऽस्थे॑ । उत्स॑स्य । मध्ये॑ । निऽहि॑तम् । प॒दम् । वेरिति॒ वेः ॥
स्वर रहित मन्त्र
एक: समुद्रो धरुणो रयीणामस्मद्धृदो भूरिजन्मा वि चष्टे । सिषक्त्यूधर्निण्योरुपस्थ उत्सस्य मध्ये निहितं पदं वेः ॥
स्वर रहित पद पाठएकः । समुद्रः । धरुणः । रयीणाम् । अस्मत् । हृदः । भूरिऽजन्मा । वि । चष्टे । सिसक्ति । ऊधः । निण्योः । उपऽस्थे । उत्सस्य । मध्ये । निऽहितम् । पदम् । वेरिति वेः ॥ १०.५.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 5; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 33; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 33; मन्त्र » 1
विषय - अग्नि। राजा और प्रभु का उत्तम वर्णन।
भावार्थ -
वह प्रभु, राजा, (एकः) एक, अद्वितीय, (समुद्रः) समस्त संसार का उद्भवस्थान, समुद्र के समान अपार, गम्भीर रत्नों के खान के समान, (रयीणां धरुणः) सब ऐश्वर्यों का आश्रय है। वह (भूरि-जन्मा) नाना जनों का स्वामी होकर (अस्मत् हृदः) हमारे हृदयों तक को भी (विचष्टे) विशेष रूप से देखता है। जिस प्रकार सूर्य (निण्योः उपस्थे) आकाश और भूमि के बीच (ऊधः) अन्तरिक्ष में (सिषक्ति) स्थित होता है, उसी प्रकार (निण्योः) अधीन, सन्मार्ग पर चलाने योग्य शासक और शास्य वर्ग दोनों के (उपस्थे) समीप वह (ऊधः) उत्तम पद पर (सिषक्ति) स्थिर हो, और (उत्सस्य मध्ये निहितं पदं वेः) जिस प्रकार अग्नि विद्युत् रूप मेघ के बीच में स्थान को व्यापता है उसी प्रकार वह (उत्सस्य) मेघ या कूपवत् उन्नत वा अवनत, ऊंचे या नीचे जन समुदाय के (मध्ये) बीच मैं (निहितं पदं) स्थित ‘पद’, अधिकार को भी (वेः) प्राप्त करता है। राजा के सर्वाधिकार हैं। (२) परमेश्वर एक, अपार, सर्वाश्रय, सर्वोद्भव, सर्वद्रष्टा, बहुत से पदार्थों का जन्मदाता, सर्वव्यापक, सर्वज्ञ है।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - त्रित ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः-१ विराट् त्रिष्टुप्। २–५ त्रिष्टुप्। ६, ७ निचृत् त्रिष्टुप्॥ सप्तर्चं सृक्तम्॥
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