ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 52/ मन्त्र 4
मां दे॒वा द॑धिरे हव्य॒वाह॒मप॑म्लुक्तं ब॒हु कृ॒च्छ्रा चर॑न्तम् । अ॒ग्निर्वि॒द्वान्य॒ज्ञं न॑: कल्पयाति॒ पञ्च॑यामं त्रि॒वृतं॑ स॒प्तत॑न्तुम् ॥
स्वर सहित पद पाठमाम् । दे॒वाः । द॒धि॒रे॒ । ह॒व्य॒ऽवाह॑म् । अप॑ऽम्लुक्तम् । ब॒हु । कृ॒च्छ्रा । चर॑न्तम् । अ॒ग्निः । वि॒द्वान् । य॒ज्ञम् । नः॒ । क॒ल्प॒या॒ति॒ । पञ्च॑ऽयामम् । त्रि॒ऽवृत॑म् । स॒प्तऽत॑न्तुम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
मां देवा दधिरे हव्यवाहमपम्लुक्तं बहु कृच्छ्रा चरन्तम् । अग्निर्विद्वान्यज्ञं न: कल्पयाति पञ्चयामं त्रिवृतं सप्ततन्तुम् ॥
स्वर रहित पद पाठमाम् । देवाः । दधिरे । हव्यऽवाहम् । अपऽम्लुक्तम् । बहु । कृच्छ्रा । चरन्तम् । अग्निः । विद्वान् । यज्ञम् । नः । कल्पयाति । पञ्चऽयामम् । त्रिऽवृतम् । सप्तऽतन्तुम् ॥ १०.५२.४
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 52; मन्त्र » 4
अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 12; मन्त्र » 4
अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 12; मन्त्र » 4
विषय - सूर्य की किरणों के तुल्य विद्वानों का ज्ञान-प्रकाश-प्रदान का कर्त्तव्य। अध्यात्म में—सात्विक यज्ञ का वर्णन।
भावार्थ -
(देवाः) सूर्य के किरण जिस प्रकार (हव्य-वाहं दधिरे) अग्नि को अपने मैं धारते और पुनः उत्पन्न कर देते हैं उसी प्रकार (देवाः) विद्वान्गण (हव्य-वाहम्) अन्नग्राही, और ज्ञानधारक (बहु कृच्छ्रा चरन्तं) बहुत से कठिन व्रतों का आचरण करने वाले और समस्त पापों से मुक्त हुए मुझको (दधिरे) धारण करते, वा वे मुझ को ज्ञानधारी बना देते हैं। (विद्वान् अग्निः) विद्वान्, अग्निवत् तेजस्वी पुरुष (नः यज्ञं कल्पयाति) हमारा वह सात्त्विक यज्ञ करता है, और वह यज्ञ (पञ्च-यामम्) पांच मार्गों से करने योग्य पांच जनों से यन्त्रित करने योग्य, देह में पांचों इन्द्रियों के समवाय से करने योग्य, (त्रि-वृतम्) मन, वाणी, कर्म तीन प्रकार से करने योग्य और (तप्त-सन्तुम्) सात छन्दों, से वा सात शीर्षण्य प्राणों से करने योग्य होता है।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अग्निः सौचीक ऋषिः। देवा देवताः॥ छन्द:- १ त्रिष्टुप्। २–४ निचृत् त्रिष्टुप्। ५, ६ विराट् त्रिष्टुप्॥ षडृचं सूक्तम्॥
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