ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 57/ मन्त्र 3
ऋषिः - बन्धुः सुबन्धुः श्रुतबन्धुर्विप्रबन्धुश्च गौपयाना लौपयाना वा
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
मनो॒ न्वा हु॑वामहे नाराशं॒सेन॒ सोमे॑न । पि॒तॄ॒णां च॒ मन्म॑भिः ॥
स्वर सहित पद पाठमनः॑ । नु । आ । हु॒वा॒म॒हे॒ । ना॒रा॒शं॒सेन॑ । सोमे॑न । पि॒तॄ॒णाम् । च॒ । मन्म॑ऽभिः ॥
स्वर रहित मन्त्र
मनो न्वा हुवामहे नाराशंसेन सोमेन । पितॄणां च मन्मभिः ॥
स्वर रहित पद पाठमनः । नु । आ । हुवामहे । नाराशंसेन । सोमेन । पितॄणाम् । च । मन्मऽभिः ॥ १०.५७.३
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 57; मन्त्र » 3
अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 19; मन्त्र » 3
अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 19; मन्त्र » 3
विषय - मन को वश करने का उपदेश।
भावार्थ -
हम (नाराशंसेन सोमेन) मनुष्यों द्वारा प्रशंसनीय, उत्तम सन्मार्ग में प्रणेता द्वारा स्तुति, उपदेश करने योग्य (सोमेन) उत्तम सौम्य गुणों से युक्त पुरुष वा शिष्य पुत्रादि से हम लोग (नु) अब अपने (मनः आ हुवामहे) चित्त वा ज्ञान को सब ओर प्राप्त करावें। और (पितॄणां मन्मभिः) ज्ञान के पालक गुरु जनों के मनन करने योग्य वचनों द्वारा उन सहित भी हम (मनः आ हुवामहे) सब ओर ज्ञान और चित्त को ले जावें।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - बन्धुः सुबन्धुः बन्धुर्विप्रबन्धुश्च गौपायनाः॥ विश्वेदेवा देवताः॥ छन्दः—१ गायत्री। २–६ निचृद् गायत्री॥ षडृचं सूक्तम्॥
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