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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 57 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 57/ मन्त्र 5
    ऋषिः - बन्धुः सुबन्धुः श्रुतबन्धुर्विप्रबन्धुश्च गौपयाना लौपयाना वा देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    पुन॑र्नः पितरो॒ मनो॒ ददा॑तु॒ दैव्यो॒ जन॑: । जी॒वं व्रातं॑ सचेमहि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पुनः॑ । नः॒ । पि॒त॒रः॒ । मनः॑ । ददा॑तु । दैव्यः॑ । जनः॑ । जी॒वम् । व्रात॑म् । स॒चे॒म॒हि॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पुनर्नः पितरो मनो ददातु दैव्यो जन: । जीवं व्रातं सचेमहि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पुनः । नः । पितरः । मनः । ददातु । दैव्यः । जनः । जीवम् । व्रातम् । सचेमहि ॥ १०.५७.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 57; मन्त्र » 5
    अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 19; मन्त्र » 5

    भावार्थ -
    (नः पितरः) हमारे पालन करने वाले नाना सूर्य, पृथिवी, वायु, प्राण आदि पदार्थ (नः मनः ददतु) हमें फिर २ मन को प्रदान करें। और (दैव्यः जनः) देवतुल्य सूर्यवत् तेजस्वी जन भी हमें पुनः २ मन वा ज्ञान का प्रदान करें। जिससे हम बार बार (जीवं व्रातं सचेमहि) जीवन युक्त प्राणगण को प्राप्त हों।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - बन्धुः सुबन्धुः बन्धुर्विप्रबन्धुश्च गौपायनाः॥ विश्वेदेवा देवताः॥ छन्दः—१ गायत्री। २–६ निचृद् गायत्री॥ षडृचं सूक्तम्॥

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