ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 68/ मन्त्र 1
उ॒द॒प्रुतो॒ न वयो॒ रक्ष॑माणा॒ वाव॑दतो अ॒भ्रिय॑स्येव॒ घोषा॑: । गि॒रि॒भ्रजो॒ नोर्मयो॒ मद॑न्तो॒ बृह॒स्पति॑म॒भ्य१॒॑र्का अ॑नावन् ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒द॒ऽप्रुतः॑ । न । वयः॑ । रक्ष॑माणाः । वाव॑दतः । अ॒भ्रिय॑स्यऽइव । घोषाः॑ । गि॒रि॒ऽभ्रजः॑ । न । ऊ॒र्मयः॑ । मद॑न्तः । बृहस्पति॑म् । अ॒भि । अ॒र्काः । अ॒ना॒व॒न् ॥
स्वर रहित मन्त्र
उदप्रुतो न वयो रक्षमाणा वावदतो अभ्रियस्येव घोषा: । गिरिभ्रजो नोर्मयो मदन्तो बृहस्पतिमभ्य१र्का अनावन् ॥
स्वर रहित पद पाठउदऽप्रुतः । न । वयः । रक्षमाणाः । वावदतः । अभ्रियस्यऽइव । घोषाः । गिरिऽभ्रजः । न । ऊर्मयः । मदन्तः । बृहस्पतिम् । अभि । अर्काः । अनावन् ॥ १०.६८.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 68; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 17; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 17; मन्त्र » 1
विषय - बृहस्पति। हंसवत् भक्तों के कर्त्तव्य। भक्तों की प्रकट होती वाणियों का वर्णन।
भावार्थ -
(मदन्तः) स्तुति करते हुए, अति प्रसन्न (अर्काः) स्तुति करने वाले भक्त जन, (बृहस्पतिम्) महान् ब्रह्माण्डों के पालक प्रभु परमेश्वर की ऐसे (अनावन्) उत्साहपूर्वक स्तुति करते हैं (उद-प्रुतः-वयः न) जिस प्रकार जल पर तैरने वाले, जलचर पक्षी, हंस कलकल करते हैं। जैसे (रक्षमाणाः) समय २ पर जिस प्रकार रक्षक, खेत के रखने वाले उच्च स्वर से हांका लगाते हैं। ऐसे जैसे (वावदतः न) परस्पर आलाप वा बातचीत करते हुए स्नेह के प्रवाह में बात करते ही रहते हैं, ऐसे जैसे (अभ्रियस्य घोषाः न) मेघ के गर्जन होते हैं, ऐसे जैसे (गिरिभ्रजः ऊर्मयः न) मेघ से गिरने वाली जलधाराएं वा पर्वत से झरने वाले झरने अनवरत प्रवाह से बहते हैं। इन नाना प्रकारों से स्तुतिशील जन प्रभु की स्तुति करते हैं, स्तुति करने वालों के ध्वनि, विचारप्रवाह और उपास्य-उपासक का साक्षाद्-भाव इन अनेक दृष्टान्तों से समझना चाहिये।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अयास्य ऋषिः॥ बृहस्पतिर्देवता। छन्दः— १, १२ विराट् त्रिष्टुप्। २, ८—११ त्रिष्टुप्। ३–७ निचृत् त्रिष्टुप्॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥
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