ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 72/ मन्त्र 1
ऋषिः - बृहस्पतिर्बृहस्पतिर्वा लौक्य अदितिर्वा दाक्षायणी
देवता - देवाः
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
दे॒वानां॒ नु व॒यं जाना॒ प्र वो॑चाम विप॒न्यया॑ । उ॒क्थेषु॑ श॒स्यमा॑नेषु॒ यः पश्या॒दुत्त॑रे यु॒गे ॥
स्वर सहित पद पाठदे॒वाना॑म् । नु । व॒यम् । जाना॑ । प्र । वो॒चा॒म॒ । वि॒प॒न्यया॑ । उ॒क्थेषु॑ । श॒स्यमा॑नेषु । यः । पश्या॑त् । उत्ऽत॑रे । यु॒गे ॥
स्वर रहित मन्त्र
देवानां नु वयं जाना प्र वोचाम विपन्यया । उक्थेषु शस्यमानेषु यः पश्यादुत्तरे युगे ॥
स्वर रहित पद पाठदेवानाम् । नु । वयम् । जाना । प्र । वोचाम । विपन्यया । उक्थेषु । शस्यमानेषु । यः । पश्यात् । उत्ऽतरे । युगे ॥ १०.७२.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 72; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 1; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 1; मन्त्र » 1
विषय - देवगण। देवों, विद्वानों, दिव्य पदार्थों के जन्मादि सम्बन्ध में विवेचन।
भावार्थ -
(वयं) हम विद्वान् लोग (वि-पन्यया) विशेष रूप से गुणों का वर्णन करने वाली वाणी द्वारा (देवानाम् जाना) देवों, विद्वानों और दिव्य सूर्यादि प्रकाशमान पदार्थों के जन्मों का (प्र वोचाम) अच्छी प्रकार वर्णन करते हैं। (यः) जो विद्वान् जन (उक्थेषु) वेद के उत्तम ज्ञान बतलाने वाले मन्त्रों के (शस्यमानेषु) उपदेश कर देने पर (उत्तरे युगे) उत्तर युग, आने वाले काल या सबसे उत्कृष्ट सर्वयोगी, सर्वप्रेरक, सर्वसहायक परमेश्वर के सम्बन्ध में (पश्यात्) साक्षात् दर्शन कर लेता है। अर्थात् वेदमन्त्रों के उपदेश करने पर पूर्वकाल में भी और आगे भविष्यकाल में भी देव, ज्ञानदर्शी, तत्वज्ञानी, जन उत्पन्न होते रहे और उत्पन्न होते हैं, और उत्पन्न होंगे वे उपदेश के अनन्तर उत्तम प्रभु का भी दर्शन करते हैं, भूत भविष्य के ज्ञान को साक्षात् करते हैं।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - बृहस्पतिरांगिरसो बृहस्पतिर्वा लौक्य अदितिर्वा दाक्षायणी ऋषिः। देवा देवता ॥ छन्दः — १, ४, ६ अनुष्टुप्। २ पादनिचृदुनुष्टुप्। ३, ५, ७ निचदनुष्टुप्। ८, ६ विराड्नुष्टुप्॥ नवर्चं सूक्तम्॥
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