ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 75/ मन्त्र 2
ऋषिः - सिन्धुक्षित्प्रैयमेधः
देवता - नद्यः
छन्दः - विराड्जगती
स्वरः - निषादः
प्र ते॑ऽरद॒द्वरु॑णो॒ यात॑वे प॒थः सिन्धो॒ यद्वाजाँ॑ अ॒भ्यद्र॑व॒स्त्वम् । भूम्या॒ अधि॑ प्र॒वता॑ यासि॒ सानु॑ना॒ यदे॑षा॒मग्रं॒ जग॑तामिर॒ज्यसि॑ ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । ते॒ । अ॒र॒द॒त् । वरु॑णः । यात॑वे । प॒थः । सिन्धो॒ इति॑ । यत् । वाजा॑न् । अ॒भि । अद्र॑वः । त्वम् । भूम्याः॑ । अधि॑ । प्र॒ऽवता॑ । या॒सि॒ । सानु॑ना । यत् । ए॒षा॒म् । अग्र॑म् । जग॑ताम् । इ॒र॒ज्यसि॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र तेऽरदद्वरुणो यातवे पथः सिन्धो यद्वाजाँ अभ्यद्रवस्त्वम् । भूम्या अधि प्रवता यासि सानुना यदेषामग्रं जगतामिरज्यसि ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । ते । अरदत् । वरुणः । यातवे । पथः । सिन्धो इति । यत् । वाजान् । अभि । अद्रवः । त्वम् । भूम्याः । अधि । प्रऽवता । यासि । सानुना । यत् । एषाम् । अग्रम् । जगताम् । इरज्यसि ॥ १०.७५.२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 75; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 6; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 6; मन्त्र » 2
विषय - इन्जीनियर के तुल्य प्रयाणार्थ मार्ग-निर्माण में राजा के कर्त्तव्य। अध्यात्म में देह-शिल्प का वर्णन। प्रभु विषयक मन्त्र-योजना।
भावार्थ -
(सिन्धोः यातवे) जिस प्रकार वेग से बहने वाले जलप्रवाह के जाने के लिये (वरुणः) उसको अनेक शाखाओं में बांटने वाला वा जलाध्यक्ष विद्वान् इनजीनियर वा कृषक इसके (पथः) मार्गों नाली कुल्या, नहर आदि को (अरदत्) खोदता है, और वह जलराशि (वाजान् अभिद्रवति) खेत के अन्नों तक पहुंचती है, (भूम्या अधि प्रवता सानुनायाति) अपने अति वेग से वह जल नीचे मार्ग से जाता है। (एषाम् अग्रम् जगताम् इरज्यति) वह जल इन जंगम प्राणियों के मुख्य जीवन का आधार होता है उसी प्रकार (२) हे (सिन्धो) समस्त प्रजाओं को बांधने और दुष्टों को कंपाने में समर्थ राजन् ! (ते) तेरे (यातवे) प्रयाण के लिये (वरुणः पथः प्र अरदत्) तुझे वरण करने वाला श्रेष्ठ जन अनेक मार्ग बनावे। (यत्) जिन से (त्वम् वाजान् अभि अद्रवः) तू संग्रामों को वेग से प्रयाण कर सके और अनेक ऐश्वर्यों को प्राप्त कर सके। तू (प्रवता सानुना) उत्कृष्ट उन्नत मार्ग से (भूम्याः अधि प्र यासि) पृथिवी पर गमन कर। तू (एषां जगताम्) इन जंगम प्रजाओं के (अग्रम्) सब से मुख्य अंश का भी (इरज्यसि) स्वामी है (३) अध्यात्म में—वरुण परमात्मा ने मुख्य प्राण के संचरण के लिये देह में अनेक मार्ग इन्द्रिय रूप से बनाये हैं। उन मार्गों से वह अन्नों के ग्राह्य विषयों तक पहुंचता है। वह (पृथिव्याः) पार्थिव देह पर उत्तम रीति से अधिकार करता है (४) प्रभु पक्ष में —हे (सिन्धो) दयासिन्धो ! सब शक्तियों के समुद्र ! सर्वप्रबन्धक सर्वसञ्चालक प्रभो ! (ते यातवे) तुझे प्राप्त करने के लिये (वरुणः) तुझे चाहने वाला भक्त जन अनेक ज्ञान-मार्ग बनाता है, तू समस्त ऐश्वर्यों को प्राप्त है, तू समस्त भूमि पर मेघ के समान समस्त उत्पन्न प्रजा पर उत्तम ऐश्वर्य सहित प्राप्त है। इन जंगम जीवों का भी तू सर्वप्रथम (इरज्यसि) सब का स्वामी है।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -
सिन्धुक्षित्प्रैयमेध ऋषिः। नद्यो देवताः॥ छन्दः—१ निचृज्जगती २, ३ विराड जगती। ४ जगती। ५, ७ आर्ची स्वराड् जगती। ६ आर्ची भुरिग् जगती। ८,९ पादनिचृज्जगती॥
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