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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 86 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 86/ मन्त्र 1
    ऋषिः - वृषाकपिरैन्द्र इन्द्राणीन्द्रश्च देवता - वरुणः छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    वि हि सोतो॒रसृ॑क्षत॒ नेन्द्रं॑ दे॒वम॑मंसत । यत्राम॑दद्वृ॒षाक॑पिर॒र्यः पु॒ष्टेषु॒ मत्स॑खा॒ विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि । हि । सोतोः॑ । असृ॑क्षत । न । इन्द्र॑म् । दे॒वम् । अ॒मं॒स॒त॒ । यत्र॑ । अम॑दत् । वृ॒षाक॑पिः । अ॒र्यः । पु॒ष्टेषु॑ । मत्ऽस॑खा । विश्व॑स्मात् । इन्द्रः॑ । उत्ऽत॑रः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वि हि सोतोरसृक्षत नेन्द्रं देवममंसत । यत्रामदद्वृषाकपिरर्यः पुष्टेषु मत्सखा विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वि । हि । सोतोः । असृक्षत । न । इन्द्रम् । देवम् । अमंसत । यत्र । अमदत् । वृषाकपिः । अर्यः । पुष्टेषु । मत्ऽसखा । विश्वस्मात् । इन्द्रः । उत्ऽतरः ॥ १०.८६.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 86; मन्त्र » 1
    अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 1; मन्त्र » 1

    भावार्थ -
    विद्वान् लोग (सोतोः) उत्पादक परमेश्वर के विषय में (हि) निश्चय (वि असृक्षत) विविध प्रकार से यत्न करते हैं, अथवा अनेक जीवगण (सोतोः) उत्पादक प्रभु तथा उत्पादक प्रकृति तत्त्व से (हि) निश्चय से (वि असृक्षत) विविध प्रकार से उत्पन्न होते हैं। तो भी वे लोग (इन्द्रं) इस जगत् के धारण करने, प्रकाश करने और उस मूल भूमि, सर्वोत्पादक प्रकृति को व्यापने, विदारण करने वाले प्रभु (देवम्) सर्वसुखद देव परमेश्वर को (न अमंसत) नहीं जानते। (यत्र) जहां (वृषा कपिः) वृष्टि करने वा जगत् को संचालन करने वाला प्रभु (अमदत्) स्वयं तृप्त और समस्त जीवों को भी तृप्त करता है, स्वयं पूर्ण रस से अन्य युक्त है वह उन (पुष्टेषु) बड़े २ महान् लोकों में भी उनका (अर्यः) स्वामी और (मत्-सखा) मुझ जीव का मित्र है वही (इन्द्रः) परम ऐश्वर्य का देने वाला प्रभु (विश्वस्मात् उत्तरः) सब से उत्कृष्ट है। अथव (वृषा-कपिः) वृष्टिकारी प्रभु में सुख का पान करने वाला योगी जिस में स्वयं हर्ष, आनन्द प्राप्त करता है वह प्रभु ही सबका स्वामी सर्वोत्कृष्ट है। वृषा-कपिः का आध्यात्मिक और समाज और राष्ट्र-पक्ष में स्पष्टीकरण देखो अथर्ववेद आलोक भाष्य (कां० २०। सू० २२६। १)

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वृषाकपिरैन्द्र इन्द्राणीन्द्रश्च ऋषयः॥ वरुणो देवता॥ छन्दः- १, ७, ११, १३, १४ १८, २३ पंक्तिः। २, ५ पादनिचृत् पंक्तिः। ३, ६, ९, १०, १२,१५, २०–२२ निचृत् पंक्तिः। ४, ८, १६, १७, १९ विराट् पंक्तिः॥

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