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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 89 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 89/ मन्त्र 1
    ऋषिः - रेणुः देवता - इन्द्र: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    इन्द्रं॑ स्तवा॒ नृत॑मं॒ यस्य॑ म॒ह्ना वि॑बबा॒धे रो॑च॒ना वि ज्मो अन्ता॑न् । आ यः प॒प्रौ च॑र्षणी॒धृद्वरो॑भि॒: प्र सिन्धु॑भ्यो रिरिचा॒नो म॑हि॒त्वा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑म् । स्त॒व॒ । नृऽत॑मम् । यस्य॑ । म॒ह्ना । वि॒ऽब॒बा॒धे । रो॒च॒ना । वि । ज्मः । अन्ता॑न् । आ । यः । प॒प्रौ । च॒र्षणि॒ऽधृत् । वरः॑ऽभिः । प्र । सिन्धु॑ऽभ्यः । रि॒रि॒चा॒नः । म॒हि॒ऽत्वा ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रं स्तवा नृतमं यस्य मह्ना विबबाधे रोचना वि ज्मो अन्तान् । आ यः पप्रौ चर्षणीधृद्वरोभि: प्र सिन्धुभ्यो रिरिचानो महित्वा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रम् । स्तव । नृऽतमम् । यस्य । मह्ना । विऽबबाधे । रोचना । वि । ज्मः । अन्तान् । आ । यः । पप्रौ । चर्षणिऽधृत् । वरःऽभिः । प्र । सिन्धुऽभ्यः । रिरिचानः । महिऽत्वा ॥ १०.८९.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 89; मन्त्र » 1
    अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 14; मन्त्र » 1

    भावार्थ -
    (यस्य मह्ना) जो अपने महान् सामर्थ्य से (रोचना) चमकने वाले, तेजस्वी, सूर्य, चन्द्र, तारों के तुल्य अनेक तेजस्वियों को (वि-बबाधे) बाधित करता, पीड़ित करता, अपने अधीन करता है, और जो अपने महान् सामर्थ्य से (ज्मः अन्तान् वि) पृथिवी के प्रान्त भागों को भी विशेष रूप से पीड़ित करता, उनको प्रकाश, ताप आदि द्वारा शोषित करता तथा आंधी आदि चलाता है। (यः चर्षणी धृत्) जो मनुष्यों को वा अध्यक्षों को धारण करने वाला, सर्वद्रष्टा सर्वाध्यक्ष सम्राट् के तुल्य होकर जगत् को (वरोभिः) नाना अन्धकार नाशक तेजों से (आ पप्रौ) पूर्ण करता है। और जो (महित्वा) अपने महत्व परिमाण वा गुणों और शक्ति सामर्थ्यों के महान् होने से (सिन्धुभ्यः प्र रिरिचानः) समुद्रों और महान् आकाशों से भी बड़ा है (नृ-तमं) नायकों में सर्वश्रेष्ठ, सर्वपुरुषोतम उस (इन्द्रं) सर्वजगत् के द्रष्टा, सर्वप्रकाशक परमेश्वर की तू (स्तव) स्तुति कर। (२) अध्यात्म में—नेता और प्राणों में सर्वश्रेष्ठ ‘आत्मा’ ‘इन्द्र’ है। उसकी इन्द्रिय ‘रोचन’ हैं। पार्थिव शरीर ‘ज्म’ है। ज्ञानेन्द्रिय ‘चर्षणी’ हैं। इच्छा शक्तियां, ‘वरः’ हैं और देहगत नाड़ियां ‘सिन्धु’ हैं।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ऋषि रेणुः॥ देवता—१–४, ६–१८ इन्द्रः। ५ इन्द्रासोमौ॥ छन्द:- १, ४, ६, ७, ११, १२, १५, १८ त्रिष्टुप्। २ आर्ची त्रिष्टुप्। ३, ५, ९, १०, १४, १६, १७ निचृत् त्रिष्टुप्। ८ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। १३ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्॥ अष्टादशर्चं सूक्तम्॥

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