ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 98/ मन्त्र 12
ऋषिः - देवापिरार्ष्टिषेणः
देवता - देवाः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अग्ने॒ बाध॑स्व॒ वि मृधो॒ वि दु॒र्गहापामी॑वा॒मप॒ रक्षां॑सि सेध । अ॒स्मात्स॑मु॒द्राद्बृ॑ह॒तो दि॒वो नो॒ऽपां भू॒मान॒मुप॑ नः सृजे॒ह ॥
स्वर सहित पद पाठअग्ने॑ । बाध॑स्व । वि । मृधः॑ । वि । दुः॒ऽगहा॑ । अप॑ । अमी॑वाम् । अप॑ । रक्षां॑सि । से॒ध॒ । अ॒स्मात् । स॒मु॒द्रात् । बृ॒ह॒तः । दि॒वः । नः॒ । अ॒पाम् । भू॒मान॑म् । उप॑ । नः॒ । सृ॒ज॒ । इ॒ह ॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्ने बाधस्व वि मृधो वि दुर्गहापामीवामप रक्षांसि सेध । अस्मात्समुद्राद्बृहतो दिवो नोऽपां भूमानमुप नः सृजेह ॥
स्वर रहित पद पाठअग्ने । बाधस्व । वि । मृधः । वि । दुःऽगहा । अप । अमीवाम् । अप । रक्षांसि । सेध । अस्मात् । समुद्रात् । बृहतः । दिवः । नः । अपाम् । भूमानम् । उप । नः । सृज । इह ॥ १०.९८.१२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 98; मन्त्र » 12
अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 13; मन्त्र » 6
अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 13; मन्त्र » 6
विषय - प्रभु वा वीर पुरुष से दुष्टों के नाश की प्रार्थना। अग्नि द्वारा रोगादि नाश का उपदेश। आष्टिषेण देवापि और शन्तनु के ऐतिह्य का स्पष्टीकरण।
भावार्थ -
हे (अग्ने) स्वप्रकाश ! तू (मृधः वि बाधस्व) हिंसाकारियों को विविध प्रकारों से पीड़ित कर। (दुर्गहा वि) दुःख से ग्रहण करने योग्य दुष्पार कष्टों को दूर कर। (अमीवाम् अप) रोग को दूर कर। (रक्षांसि अप सेध) दुष्टों और विघ्नों को दूर कर। (अस्मात् बृहतः समुद्रात्) इस महान् आकाशवत् समुद्र से और (बृहतः दिवः) महान् तेजोमय सूर्य से (इह) इस भूमि लोक पर (नः) हमारे लिये (अपां भूमानम् उप सृज) जलों का बहुत भारी भाग प्राप्त करा, प्रदान कर। (२) प्रभो ! तू हमारे सब भीतरी नाशकारी क्रोध आदि शत्रुओं को नाश कर, कष्टों को दूर कर, रोग और विघ्नों को हटा और इस महान् तेज के परम सुखदायक समुद्रवत् प्रभु से हमें (अपां भूमानं) प्रकृति परमाणुओं वा लोकों के बीच उस महान् प्रभु, वा प्राणों के बीच भूमा, आत्मा को हमें प्राप्त करा।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ऋषिर्देवापिरार्ष्टिषेणः। देवा देवताः॥ छन्द:- १, ७ भुरिक् त्रिष्टुप्। २, ६, ८, ११, १२ निचृत् त्रिष्टुप्। ३, ५ त्रिष्टुप्। ९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ४, १० विराट् त्रिष्टुप्॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥
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