ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 13/ मन्त्र 1
ऋषिः - गृत्समदः शौनकः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
ऋ॒तुर्जनि॑त्री॒ तस्या॑ अ॒पस्परि॑ म॒क्षू जा॒त आवि॑श॒द्यासु॒ वर्ध॑ते। तदा॑ह॒ना अ॑भवत्पि॒प्युषी॒ पयों॒ऽशोः पी॒यूषं॑ प्रथ॒मं तदु॒क्थ्य॑म्॥
स्वर सहित पद पाठऋ॒तुः । जनि॑त्री । तस्याः॑ । अ॒पः । परि॑ । म॒क्षु । जा॒तः । आ । अ॒वि॒श॒त् । यासु॑ । वर्ध॑ते । तत् । आ॒ह॒नाः । अ॒भ॒व॒त् । पि॒प्युषी॑ । पयः॑ । अं॒शोः । पी॒यूष॑म् । प्र॒थ॒मम् । तत् । उ॒क्थ्य॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
ऋतुर्जनित्री तस्या अपस्परि मक्षू जात आविशद्यासु वर्धते। तदाहना अभवत्पिप्युषी पयोंऽशोः पीयूषं प्रथमं तदुक्थ्यम्॥
स्वर रहित पद पाठऋतुः। जनित्री। तस्याः। अपः। परि। मक्षु। जातः। आ। अविशत्। यासु। वर्धते। तत्। आहनाः। अभवत्। पिप्युषी। पयः। अंशोः। पीयूषम्। प्रथमम्। तत्। उक्थ्यम्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 13; मन्त्र » 1
अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 10; मन्त्र » 1
अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 10; मन्त्र » 1
विषय - मातृवत् राजा, सभा और राजा का वर्णन ।
भावार्थ -
जिस प्रकार ( ऋतुः जनित्री ) ऋतुमती स्त्री पुत्र उत्पन्न करने हारी होती है, और ( तस्याः परि जातः ) उससे उत्पन्न हुआ पुत्र ( यासु वर्धते ) जिन जलों के भीतर लिपटा हुआ बढ़ता है वह उन ( अपः आ अविशत् ) जलों के भीतर प्रविष्ट होकर रहता है । ( आहनाः ) वह प्रेममयी माता ही ( तत् अंशोः ) उस अपने से उत्पन्न पुत्र को ( पयः पिप्युषी ) दूध पिलाने वाली ( अभवत् ) होती है । वही प्रेम वश उसको दूध पिलाया करती है । ( अंशोः ) किरण के समान सुन्दर उस बालक के लिये ( प्रथमं ) सब से प्रथम ( तत् ) वह ( पीयूषं ) दुग्ध ही पान योग्य होने से ‘पीयूष’ है और वह ( उक्थ्यम् ) अति उत्तम, प्रशंसा योग्य होता है। और जिस प्रकार ( ऋतुः जनित्री ) सब ओषधियों को उत्पन्न करने वाला मौसम ही उन ओषधियों की माता है । जिनमें वह वृद्धि पाता है उन जलों में भी वह औषधि ( तस्याः जातः ) उस ऋतु से उत्पन्न होकर उन जलों में प्रविष्ट होता है वही ‘ऋतु’ ही उसमें व्यापक रहकर अपने ( पयः ) रसका पान कराती है वह ऋतु का जल ही उस सोम आदि ओषधि के लिये उत्तम जल है । ठीक इसी प्रकार (ऋतुः) ज्ञानवान् पुरुषों की बनी सभा ही ( अंशोः जनित्री ) राष्ट्र के भोक्ता या तेजस्वी उदीयमान राजा को उत्पन्न करने वाली है । ( तस्याः परि जातः ) उससे प्रकट होकर वह उन ( अपः आ अविशत् ) आप्त पुरुषों और प्रजाओं में प्रवेश करे ( यासु वर्धते ) जिनमें वह बढ़ता है । ( आहना ) प्रेम से प्राप्त होकर वह उत्पादक माता रूप राष्ट्र प्रजा ( पयः पिप्युषी ) पुष्टि कारक पदार्थों को पान करा करा उसकी वृद्धि करती है । ( अंशोः ) सूर्य के समान तेजस्वी और व्यापक राजा के लिये वह ही प्रजा का दिया ( पीयूषं ) नये पौधे के लिये जल के समान पुष्टि कारक अंश या भाग ( प्रथमं ) सब से उत्तम ( तत् उक्थ्यम् ) अति प्रशंसनीय है ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - गृत्समद ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १, २, ३, १०, ११, १२ भुरिक् त्रिष्टुप् । ७, ८ निचृत्त्रिष्टुप् । ९, १३ त्रिष्टुप् । ४ निचृज्जगती । ५, ६ विराट् जगती ॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥
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