ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 15/ मन्त्र 1
प्र घा॒ न्व॑स्य मह॒तो म॒हानि॑ स॒त्या स॒त्यस्य॒ कर॑णानि वोचम्। त्रिक॑द्रुकेष्वपिबत्सु॒तस्या॒स्य मदे॒ अहि॒मिन्द्रो॑ जघान॥
स्वर सहित पद पाठप्र । घ॒ । नु । अ॒स्य॒ । म॒ह॒तः । म॒हानि॑ । स॒त्या । स॒त्यस्य । कर॑णानि । वो॒च॒म् । त्रिऽक॑द्रुकेषु । अ॒पि॒ब॒त् । सु॒तस्य॑ । अ॒स्य । मदे॑ । अहि॑म् । इन्द्रः॑ । ज॒घा॒न॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र घा न्वस्य महतो महानि सत्या सत्यस्य करणानि वोचम्। त्रिकद्रुकेष्वपिबत्सुतस्यास्य मदे अहिमिन्द्रो जघान॥
स्वर रहित पद पाठप्र। घ। नु। अस्य। महतः। महानि। सत्या। सत्यस्य। करणानि। वोचम्। त्रिऽकद्रुकेषु। अपिबत्। सुतस्य। अस्य। मदे। अहिम्। इन्द्रः। जघान॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 15; मन्त्र » 1
अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 15; मन्त्र » 1
अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 15; मन्त्र » 1
विषय - सूर्यवत् तेजस्वी राजा का कार्य दुष्टदमन ।
भावार्थ -
( अस्य महान् ) उस महान् ( सत्यस्य ) सत्यस्वरूप परमेश्वर, न्यायशील राजा, और सूर्य के ( महानि सत्या करणानि ) बड़े २ सच्चे २ कार्यों और साधनों का ( प्रवोचम् घ ) अच्छी प्रकार वर्णन करता हूं। वह ( त्रिकद्रुकेषु ) परमेश्वर तीनों लोकों में अथवा सूर्य आदि और पृथिवी आदि लोकों और मनुष्य आदि प्राणियों में ( सुतस्य ) उत्पन्न जगत् सर्व प्रेरक बल और प्राणों की ( अपिबत् ) रक्षा करता है। सूर्य तीनों प्रकार की किरणों से जल को पान करता है। राजा तीनों प्रकार के राष्ट्र जन में ऐश्वर्य का या प्रत्येक उत्पन्न प्राणि की रक्षा करता और उसका उपभोग करता है। ( अस्य मदे ) इसके अति आनन्दमय स्वरूप में ( अहिम् ) प्रकृति के व्यापक सूक्ष्म रूप को ( इन्द्रः ) वह ऐश्वर्यवान् प्रभु ( जधान ) विनष्ट करता अर्थात् विकृत करता उसमें व्यापता है। राजा उस ऐश्वर्य के ( मदे ) दमन करने के लिये ( अहिम् ) हनन करने योग्य शत्रु या दुष्ट पुरुष का नाश करे । सूर्य जले के निमित्त मेघ का आघात करता है ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - गृत्समद ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १ भुरिक् पङ्क्तिः । ७ स्वराट् पङ्क्तिः । २, ४, ५, ६, १, १० त्रिष्टुप् । ३ निचृत् त्रिष्टुप् । ८ विराट् त्रिष्टुप् । पञ्च दशर्चं सूक्तम् ॥
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