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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 18 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 18/ मन्त्र 1
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - इन्द्र: छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    प्रा॒ता रथो॒ नवो॑ योजि॒ सस्नि॒श्चतु॑र्युगस्त्रिक॒शः स॒प्तर॑श्मिः। दशा॑रित्रो मनु॒ष्यः॑ स्व॒र्षाः स इ॒ष्टिभि॑र्म॒तिभी॒ रंह्यो॑ भूत्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्रा॒तरिति॑ । रथः॑ । नवः॑ । यो॒जि॒ । सस्निः॑ । चतुः॑ऽयुगः । त्रिऽक॒शः । स॒प्तऽर॑श्मिः । दश॑ऽअरित्रः । म॒नु॒ष्यः॑ । स्वः॒ऽसाः । सः । इ॒ष्टिऽभिः॑ । म॒तिऽभिः॑ । रंह्यः॑ । भू॒त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्राता रथो नवो योजि सस्निश्चतुर्युगस्त्रिकशः सप्तरश्मिः। दशारित्रो मनुष्यः स्वर्षाः स इष्टिभिर्मतिभी रंह्यो भूत्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्रातरिति। रथः। नवः। योजि। सस्निः। चतुःऽयुगः। त्रिऽकशः। सप्तऽरश्मिः। दशऽअरित्रः। मनुष्यः। स्वःऽसाः। सः। इष्टिऽभिः। मतिऽभिः। रंह्यः। भूत्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 18; मन्त्र » 1
    अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 21; मन्त्र » 1

    भावार्थ -
    जिस प्रकार ( नवः रथः ) नया, उत्तम, अद्भुत प्रकार का रथ ( योजि ) ऐसा जोड़कर बनाया जाय जो ( सस्निः ) सब सुखों का देने वाला, जिसमें अच्छी प्रकार लेटते सोते भी रह सकें, ( चतुर्युगः ) जिसमें घोड़े के जोड़ने के चार स्थान हों, ( त्रिकशः ) तेज़, मध्यम और मन्द तीनों प्रकारों की गति से चलने वाला, तीनों गतियों पर शासन या वश करने के यन्त्र से युक्त हो, ( सप्तरश्मिः ) उसको वश करने की सात रस्सियां या घोड़े के मुख में लगने वाली रासों के समान सात वश करने के साधन लगे हों, या उसमें सात चमकने के दीपक हों । जिसमें ( दशारित्रः ) दश थामने और चलाने के यन्त्र हों, ( स्वर्षाः ) सुख का देने वाला हो ऐसा रथ जिस प्रकार ( इष्टिभिः ) शक्ति देने वाली या साथ जुड़ी ( मतिभिः ) स्तम्भ करने वाली मुट्ठियों से ( प्रातः ) प्रभात में, ( रंह्यः ) वेग से चलाने योग्य होता है उसी प्रकार ( मनुष्य ) यह मनुष्य भी रथ के समान ही ( प्रातः ) प्रभात काल में ( इष्टिभिः ) इच्छाओं से और ( मतिभिः) भजन क्रियाओं से अर्थात् ज्ञान पूर्वक मनःप्रेरणाओं से ( रंह्यः ) रमण करने योग्य ( भूत् ) होता है। वह ( रथः ) रमणकारी और रसरूप होने से ‘रथ’ है । ( नवः) सदा नित्य होने से ‘नव’ है । (सस्निः) शुद्ध, संगदोष से रहित, (चतुर्युगः) धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चारों में संलगन रहता है । अथवा चारों वेदों से संदेह समाधान करने वाला या चारों अन्त करणों से युक्त हो वह ( त्रिकशः ) तीनों वेद वाणियों को धारण करने हारा, मन वाणी काय तीनों पर शासन करने वाला, ( सप्तरश्मिः ) भूर्धागत सात प्राणों से सात रश्मि वाला है । ( दशारित्रः ) ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रिय दश उसके नाव में लगे चप्पुओं के समान जीवन यात्रा करने में साधन है ( सः ) वह मनुष्य का आत्मा, ( स्वर्षाः ) परम सुख का अभिलाषी होकर ( इष्टिभिः मतिभिः ) यज्ञादि साधनों और उत्तम विचार योग्य बुद्धियों से (रंह्यः भूत् ) प्राप्त होता है । परमात्मा पक्ष में— परमात्मा रस रूप एवं रमण योग्य होने से ‘रथ’ है । स्तुति योग्य और अद्भुत होने से ‘नव’ है। शुद्ध होने से ‘सस्नि’ है । अन्तःकरण चतुष्टय से समाहित हो कर जानने योग्य होने से ‘चतुर्युग’ है, तीनों लोकों पर शासक होने से या वैखरी या वेदत्रयी तीनों प्रकार की वाणियों को धारने हारा होने से ‘त्रिकश’ है सप्तलोकों का शासक होने से ‘सप्तरश्मि’ है । दशों दिशाओं को स्वामी के समान त्राण करनेवाला होने से ‘दशारित्र’ है । वह सुख देने वाला होने से ‘स्वर्ष’ है । वह यज्ञों और उत्तम मननों द्वारा ( रंह्यः ) प्राप्त करने योग्य है । वही ( योजि ) योगभ्यास द्वारा एकाग्रचित्त से प्राप्त किया और ध्यान किया जाता है ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - गृत्समद ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः—१ पङ्क्तिः । ४, ८ भुरिक् पङ्क्तिः । ५, ६ स्वराट् पङ्क्तिः । ७ निचृत् पङ्क्तिः २, ३, ९ त्रिष्टुप् ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥

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