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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 24 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 24/ मन्त्र 1
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - ब्रह्मणस्पतिः छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    सेमाम॑विड्ढि॒ प्रभृ॑तिं॒ य ईशि॑षे॒ऽया वि॑धेम॒ नव॑या म॒हा गि॒रा। यथा॑ नो मी॒ढ्वान्त्स्तव॑ते॒ सखा॒ तव॒ बृह॑स्पते॒ सीष॑धः॒ सोत नो॑ म॒तिम्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः । इ॒माम् । अ॒वि॒ड्ढि॒ । प्रऽभृ॑तिम् । यः । ईशि॑षे । अ॒या । वि॒धे॒म॒ । नव॑या । म॒हा । गि॒रा । यथा॑ । नः॒ । मी॒ढ्वान् । स्तव॑ते । सखा॑ । तव॑ । बृह॑स्पते । सीस॑धः । सः । उ॒त । नः॒ । म॒तिम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सेमामविड्ढि प्रभृतिं य ईशिषेऽया विधेम नवया महा गिरा। यथा नो मीढ्वान्त्स्तवते सखा तव बृहस्पते सीषधः सोत नो मतिम्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सः। इमाम्। अविड्ढि। प्रऽभृतिम्। यः। ईशिषे। अया। विधेम। नवया। महा। गिरा। यथा। नः। मीढ्वान्। स्तवते। सखा। तव। बृहस्पते। सीसधः। सः। उत। नः। मतिम्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 24; मन्त्र » 1
    अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 1; मन्त्र » 1

    भावार्थ -
    हे गुरो ( बृहस्पते ) बृहती नाम वेद वाणी के पालक विद्वन् ! तू ( अया ) इस ( नवया ) नवीन अर्थात् शिष्यों ने जिसको पहले नहीं जाना ऐसी या सदा नवीन, सत्य ( महागिरा ) पूज्य वाणी द्वारा ही ( प्रभृतिम् ) सबसे उत्कृष्ट भृति, उत्तम आजीविका धारण पोषण को प्राप्त करने में समर्थ या अधिकारी है । ( सः ) वह तू ( इमाम् ) इसको ( अविढ्ढि ) प्राप्तकर और ( वयं विधेम ) हम तेरी उत्तम उत्तम भरण पोषण की सेवा को सम्पन्न करें । हे बृहस्पते ! विद्वन् ! जिससे कि ( तव सखा ) तेरा मित्र तेरे समान नाम वाला दूसरा अध्यापक भी ( मीढ्वान् ) मेघ के समान ज्ञान का वर्षण करने वाला होकर ( नः ) हमारी स्वल्पमति को बढ़ाता और सधाता है ( उत ) और उसी प्रकार तू भी ( नः मतिम् ) हमारी बुद्धियों को (सीषधः) सिद्ध, निश्चित, ज्ञानवान्, परिपक्व कर ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - गृत्समद ऋषिः ॥ १–११, १३–१६ ब्रह्मणस्पतिः । १२ ब्रह्मणस्पतिरिन्द्रश्च देवते ॥ छन्दः–१, ७, ९, ११ निचृज्जगती । १३ भुरिक् जगती । ६, ८, १४ जगती । १० स्वराड् जगती । २, ३ त्रिष्टुप् । ४, ५ स्वराट् त्रिष्टुप् । १२, १६ निचृत् त्रिष्टुप् । १५ भुरिक् त्रिष्टुप् ॥ षोडशर्चं सूक्तम् ॥

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