ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 33/ मन्त्र 15
ऋषिः - गृत्समदः शौनकः
देवता - रुद्रः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
ए॒वा ब॑भ्रो वृषभ चेकितान॒ यथा॑ देव॒ न हृ॑णी॒षे न हंसि॑। ह॒व॒न॒श्रुन्नो॑ रुद्रे॒ह बो॑धि बृ॒हद्व॑देम वि॒दथे॑ सु॒वीराः॑॥
स्वर सहित पद पाठए॒व । ब॒भ्रो॒ इति॑ । वृ॒ष॒भ॒ । चे॒कि॒ता॒न॒ । यथा॑ । दे॒व॒ । न । हृ॒णी॒षे । न । हंसि॑ । ह॒व॒न॒ऽश्रुत् । नः॒ । रु॒द्र॒ । इ॒ह । बो॒धि॒ । बृ॒हत् । व॒दे॒म॒ । वि॒दथे॑ । सु॒ऽवीराः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
एवा बभ्रो वृषभ चेकितान यथा देव न हृणीषे न हंसि। हवनश्रुन्नो रुद्रेह बोधि बृहद्वदेम विदथे सुवीराः॥
स्वर रहित पद पाठएव। बभ्रो इति। वृषभ। चेकितान। यथा। देव। न। हृणीषे। न। हंसि। हवनऽश्रुत्। नः। रुद्र। इह। बोधि। बृहत्। वदेम। विदथे। सुऽवीराः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 33; मन्त्र » 15
अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 18; मन्त्र » 5
अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 18; मन्त्र » 5
विषय - रुद्र, दुष्ट-दमनकारी, पितावत् पालक राजा सेनापति और विद्वान् आचार्य, के कर्त्तव्य ।
भावार्थ -
हे ( बभ्रो ) लोहितवर्ण ! तेजस्विन् ! वा हे जगत् के भरण पोषण करने वाले ! हे ( वृषभ ) सर्वश्रेष्ट ! सुखों के वर्षक ! हे ( चेकितान ) ज्ञानवन् ! अन्यों को ज्ञान देने वाले ! ( यथा ) जिस कारण तू ( न हृणीषे ) न किसी का कोई पदार्थ हर, न कोप या अनादर कर ( न हंसि ) न किसी को दण्ड, वधादि कर प्रत्युत, ( नः ) हमारा ( हवन श्रुत् ) वचन, पुकार, देन लेन व्यवहार को सुनता हुआ, और उत्तम ज्ञान का श्रवण करता हुआ, (नः बोधि) हमारे सुखादि जान, हमें ज्ञान करा । हम ( सुवीराः ) उत्तम वीर्यवान् होकर ( विदथे ) ज्ञान प्राप्ति और धन प्राप्ति के संग्राम आदि काम में ( वृहत् वदेम ) बहुत उत्तम वचन कहें । इत्यष्टादशो वर्गः॥
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - गृत्समद ऋषिः॥ रुद्रो देवता ॥ छन्दः– १, ५, ९, १३, १४, १५ निचृत् त्रिष्टुप् । ३, ५, ६, १०, ११ विराट् त्रिष्टुप् । ४,८ त्रिष्टुप् । २, ७ पङ्क्तिः । १२, भुरिक् पङ्क्तिः ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥
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