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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 5 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 5/ मन्त्र 1
    ऋषिः - सोमाहुतिर्भार्गवः देवता - अग्निः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    होता॑जनिष्ट॒ चेत॑नः पि॒ता पि॒तृभ्य॑ ऊ॒तये॑। प्र॒यक्ष॒ञ्जेन्यं॒ वसु॑ श॒केम॑ वा॒जिनो॒ यम॑म्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    होता॑ । अ॒ज॒नि॒ष्ट॒ । चेत॑नः । पि॒ता । पि॒तृऽभ्यः॑ । ऊ॒तये॑ । प्र॒ऽयक्ष॑न् । जेन्य॑म् । वसु॑ । श॒केम॑ । वा॒जिनः॑ । यम॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    होताजनिष्ट चेतनः पिता पितृभ्य ऊतये। प्रयक्षञ्जेन्यं वसु शकेम वाजिनो यमम्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    होता। अजनिष्ट। चेतनः। पिता। पितृऽभ्यः। ऊतये। प्रऽयक्षन्। जेन्यम्। वसु। शकेम। वाजिनः। यमम्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 5; मन्त्र » 1
    अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 26; मन्त्र » 1

    भावार्थ -
    ( चेतनः ) ज्ञानवान् पुरुष ( पितृभ्यः ) अपने पालक मा बाप, गुरु, आचार्य आदि पितृतुल्य जनों से ( होता ) धनैश्वर्य और विद्या को प्राप्त करके स्वयं ( ऊतये ) उनकी भी रक्षा करने के लिये ( पिता अजनिष्ट ) उनका भी पिता हो जाता है और ( चेतनः ) स्वयं ज्ञानवान् पुरुष ( होता ) ज्ञानदान करने वाला होकर ( ऊतये ) ज्ञान से तृप्त करने के कारण ( पितृभ्यः पिता ) अपने पालक पिता तुल्य पुरुषों का भी पिता ( अजनिष्ट ) होता है वह उनको ( जेन्यं वसु ) सब दुखों पर विजय करनेवाले, सर्वश्रेष्ठ, विद्याधन का प्रदान करता है इसी कारण हम लोग ( वाजिनः ) इन्द्रियों और शत्रुओं पर ज्ञान और ऐश्वर्य से सम्पन्न होकर ( यमं ) संयम या वश करने में समर्थ, ( जेन्यँ ) विजय करने वाले ( वसु ) ऐश्वर्य और क्षात्र बल को ( प्र यक्षन् ) जिस प्रकार विद्वान् जन प्रदान करते हैं उसी प्रकार हम भी ( शकेम ) दान देने में समर्थ हों । ( २ ) रात्रिः पितरः । श० २ । १ । ३ । १ ॥ ( पितृभ्यः पिता होता ऊतये अजनिष्ट ) रात्रि से सर्वपालक सूर्य दीप्ति वा रक्षा के लिये उत्पन्न होता है । ( ३ ) ओषधिलोको वै पितरः श० १३। ८।१।२०॥ ओषधि में से जीवों की रक्षा के लिये ‘पिता’ पालक अन्न उत्पन्न होता है । ( ४ ) यमो वैवस्वतो राजा इत्याह तस्य पितरो विशः । श० ३।४।३।६॥ क्षत्रंवै यमो विशः पितरः । श० ७।१।१। ४॥ प्रजाओं में ही पालक क्षत्र बल या राजा उत्पन्न होता है । ( ५ ) उसी प्रकार ( पितृभ्यः ) पालक प्राणों में के बीच उनके पालन, चेतन, दीप्ति, तृप्ति आदि के लिये ( चेतनः होता ) चेतन जीव सब शरीर का बलदाता और ‘मैं’ करके स्वीकर्त्ता प्रकट होता है । जिस ( यमं जेन्यम् ) देह के नियन्ता विजयशील, (वसु) देह में बसने वाले चेतन की ( प्र यक्षन् ) उपासना करते हुए हम (वाजिनः) ज्ञानी लोग ( शकेम ) आनन्द लाभ कर सकें । ( ६ ) अवान्तर दिशः पितरः ( श० १।८।१।४०॥ ) इन समस्त दिशाओं में सब के पालक सर्वचेतन, सर्वंप्रद प्रभु विद्यमान है। हम ( यमं ) सर्वनियन्ता सर्वत्र वासी, सर्वोपरि विजयी की ( प्र यक्षन् ) खूब उपासना करें और (शकेम) सब कार्य करने में समर्थ हो ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - सोमाहुतिर्भार्गव ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः– १, ३, ६ निचृदनुष्टुप् २, ४, ५ अनुष्टुप् । ८ विराडनुष्टुप् । ७ भुरिगुष्णिक् ॥ अष्टर्चं सूक्तम् ॥

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