ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 14/ मन्त्र 2
अया॑मि ते॒ नम॑उक्तिं जुषस्व॒ ऋता॑व॒स्तुभ्यं॒ चेत॑ते सहस्वः। वि॒द्वाँ आ व॑क्षि वि॒दुषो॒ नि ष॑त्सि॒ मध्य॒ आ ब॒र्हिरू॒तये॑ यजत्र॥
स्वर सहित पद पाठअया॑मि । ते॒ । नमः॑ऽउक्ति॑म् । जु॒ष॒स्व॒ । ऋत॑ऽवः । तुभ्य॑म् । चेत॑ते । स॒ह॒स्वः॒ । वि॒द्वान् । आ । व॒क्षि॒ । वि॒दुषः॑ । नि । ष॒त्सि॒ । मध्ये॑ । आ । ब॒र्हिः । ऊ॒तये॑ । य॒ज॒त्र॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अयामि ते नमउक्तिं जुषस्व ऋतावस्तुभ्यं चेतते सहस्वः। विद्वाँ आ वक्षि विदुषो नि षत्सि मध्य आ बर्हिरूतये यजत्र॥
स्वर रहित पद पाठअयामि। ते। नमःऽउक्तिम्। जुषस्व। ऋतऽवः। तुभ्यम्। चेतते। सहस्वः। विद्वान्। आ। वक्षि। विदुषः। नि। षत्सि। मध्ये। आ। बर्हिः। ऊतये। यजत्र॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 14; मन्त्र » 2
अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 14; मन्त्र » 2
अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 14; मन्त्र » 2
विषय - विद्वान् गुरु और परमेश्वर का वर्णन।
भावार्थ -
हे (ऋतवः) सत्यज्ञान वेद और धर्म व्यवस्था के जानने हारे ! मैं (ते अयामि) तेरे समीप तेरी शरण आता हूं। और (ते) तेरे सत्कार के लिये हे (सहस्वः) भीतरी और बाह्य शत्रुओं को पराजित करने वाले, ‘सहः’ शक्ति के स्वामिन् ! मैं (चेतते ते) स्वयं ज्ञानवान् और अन्यों को सद्विद्या और सन्मार्ग का ज्ञान कराने हारे तेरे आदर के लिये (नमः उक्तिम् अयामि) आदरसूचक ‘नमः’ ऐसा वचन प्रस्तुत करता हूं । (जुषस्व) तू उसको प्रेमपूर्वक स्वीकार कर । तू स्वयं (विद्वान्) विद्यावान् होकर (विदुषः) अन्य विद्वानों को भी (आ वक्षि) धारण करता वा उनके अभिमुख ज्ञान का प्रवचन करता है। हे (यजत्र) पूजनीय ! हे विद्या के देने हारे ! हे दानशील ! तू (ऊतये) ज्ञान प्रदान करने के लिये (मध्ये) हमारे बीच में (बर्हिः) वृद्धियुक्त उत्तम आसन पर (आ निषत्सि) सबके समक्ष आदरपूर्वक विराज। (२) इसी प्रकार राजा भी (ऊतये) रक्षा के लिये (बर्हिः) बृहत् राष्ट्र के प्रजाजन पर सब के बीच में विराजे (३) परमात्मा को हम नमस्कार करें। वह मी मूल प्रधान प्रकृति ‘ऋत’ का स्वामी, ज्ञानी, सर्वशक्तिमान् है। वह सब के बीच में व्यापक होकर विराजता और रक्षा करता है।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ऋषभो वैश्वामित्र ऋषिः। अग्निर्देवता॥ छन्दः– १, ७ निचृत् त्रिष्टुप्। २, ५ त्रिष्टुप्। ३, ४ विराट् त्रिष्टुप्। ६ पङ्किः॥ सप्तर्चं सूक्तम॥
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