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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 14 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 14/ मन्त्र 6
    ऋषिः - ऋषभो वैश्वामित्रः देवता - अग्निः छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    त्वद्धि पु॑त्र सहसो॒ वि पू॒र्वीर्दे॒वस्य॒ यन्त्यू॒तयो॒ वि वाजाः॑। त्वं दे॑हि सह॒स्रिणं॑ र॒यिं नो॑ऽद्रो॒घेण॒ वच॑सा स॒त्यम॑ग्ने॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वत् । हि । पु॒त्र॒ । स॒ह॒सः॒ । वि । पू॒र्वीः । दे॒वस्य॑ । यन्ति॑ । ऊ॒तयः॑ । वि । वाजाः॑ । त्वम् । दे॒हि॒ । स॒ह॒स्रिण॑म् । र॒यिम् । नः॒ । अ॒द्रो॒घेण॑ । वच॑सा । स॒त्यम् । अ॒ग्ने॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वद्धि पुत्र सहसो वि पूर्वीर्देवस्य यन्त्यूतयो वि वाजाः। त्वं देहि सहस्रिणं रयिं नोऽद्रोघेण वचसा सत्यमग्ने॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वत्। हि। पुत्र। सहसः। वि। पूर्वीः। देवस्य। यन्ति। ऊतयः। वि। वाजाः। त्वम्। देहि। सहस्रिणम्। रयिम्। नः। अद्रोघेण। वचसा। सत्यम्। अग्ने॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 14; मन्त्र » 6
    अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 14; मन्त्र » 6

    भावार्थ -
    हे (सहसः पुत्र) बल के पवित्र करने हारे, हे शक्ति को उत्तम उपयोग में लाकर उसको पवित्र पुण्य कीत्ति युक्त करने हारे ! वा बल के द्वारा सब विजित ऐश्वर्य को पवित्र अर्थात् साधिकार उपयोग योग्य बना लेने हारे ! वीर एवं विद्वान् एवं शक्तिशालिन् ! (देवस्य) सूर्य के समान सर्व प्रकाशक, सर्व सुखों के दाता परमेश्वर और उत्तम विजिगीषु राजा के (वाजाः) समस्त ज्ञान और ऐश्वर्य और (पूर्वीः) पूर्ण एवं सनातन से चली आई (ऊतयः) समस्त रक्षाएं भी (त्वत्) तुझ से ही (वि यन्ति) विविध प्रकार हमें प्राप्त होती हैं । (त्वं) तू ही हमें (सहस्रिणं) सहस्रों सुख, ऐश्वर्यों से युक्त (रयिं) धन और (अद्रोघेण) द्रोहरहित, प्रेमयुक्त (वचसा) वचन या वाणी से वेद के द्वारा (सत्यम्) सत्य ज्ञान, सत्य न्याय (देहि) प्रदान कर । (२) परमेश्वर पक्ष में—(देवस्य) देव अर्थात् कामनाशील जीव के अभीष्ट सभी ऐश्वर्य और कामनाएं हे प्रभो ! तुझसे ही विविध प्रकार से प्राप्त होती हैं । तू ही प्रेमयुक्त वेद वाणी से सत्य और असंख्य धन देता है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ऋषभो वैश्वामित्र ऋषिः। अग्निर्देवता॥ छन्दः– १, ७ निचृत् त्रिष्टुप्। २, ५ त्रिष्टुप्। ३, ४ विराट् त्रिष्टुप्। ६ पङ्किः॥ सप्तर्चं सूक्तम॥

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