ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 15/ मन्त्र 2
त्वं नो॑ अ॒स्या उ॒षसो॒ व्यु॑ष्टौ॒ त्वं सूर॒ उदि॑ते बोधि गो॒पाः। जन्मे॑व॒ नित्यं॒ तन॑यं जुषस्व॒ स्तोमं॑ मे अग्ने त॒न्वा॑ सुजात॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । नः॒ । अ॒स्याः । उ॒षसः॑ । विऽउ॑ष्टौ । त्वम् । सूरे॑ । उत्ऽइ॑ते । बो॒धि॒ । गो॒पाः । जन्म॑ऽइव । नित्य॑म् । तन॑यम् । जु॒ष॒स्व॒ । स्तोम॑म् । मे॒ । अ॒ग्ने॒ । त॒न्वा॑ । सु॒ऽजा॒त॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वं नो अस्या उषसो व्युष्टौ त्वं सूर उदिते बोधि गोपाः। जन्मेव नित्यं तनयं जुषस्व स्तोमं मे अग्ने तन्वा सुजात॥
स्वर रहित पद पाठत्वम्। नः। अस्याः। उषसः। विऽउष्टौ। त्वम्। सूरे। उत्ऽइते। बोधि। गोपाः। जन्मऽइव। नित्यम्। तनयम्। जुषस्व। स्तोमम्। मे। अग्ने। तन्वा। सुऽजात॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 15; मन्त्र » 2
अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 15; मन्त्र » 2
अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 15; मन्त्र » 2
विषय - राजा वा गुरु का प्रजा से पिता-पुत्रवत् सम्बन्ध।
भावार्थ -
(अस्याः उषसः) उस उषा के (व्युष्टौ) विशेष कान्ति से चमकने पर और (सूरे उदिते) सूर्य के उदय हो जाने पर (त्वं) तू ही (नः गोपाः) हमारा रक्षक होकर (बोधि) स्वयं जाग, ज्ञानवान् हो और हमें भी ज्ञानवान् कर और जगा। (जन्म इव तनयं) नवीन जन्म अर्थात् देह धारण करना ही जिस प्रकार नव-जात बच्चे को (तन्वा जुषते) नये देह से युक्त करता है उसी प्रकार हे (सु-जात) उत्तम जात अर्थात् बालक के समान शुभ गुणों और कर्मों से प्रख्यात (अग्ने) ज्ञानवन् ! अग्रणी विद्वन् ! तू भी (तन्वा) अपने शरीर से या विस्तृत राष्ट्र से (नित्यं) सदा से विद्यमान (मे स्तोमं) मुझ प्रजाजन के उत्तम प्रशंसनीय समूह को (जुषस्व) प्रेम से सेवन कर । अथवा—(जन्म इव तनयं) जन्म देने वाला पिता जिस प्रकार पुत्र को स्वीकार करता है उसी प्रकार तू भी पिता के समान मुझ प्रजा के संघों को (स्तोमं) उत्तम वचनों या वीर्ययुक्त दलों, अधिकारों और ऐश्वर्य का सेवन कर, प्राप्त कर।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - उत्कील कात्य ऋषिः। अग्निर्देवता॥ छन्द्रः– १, ४ त्रिष्टुप्। ५ विराट् त्रिष्टुप् । ६ निचृत् त्रिष्टुप्। २ पंक्तिः। ३, ७ भुरिक् पंक्तिः॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥
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