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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 29 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 29/ मन्त्र 2
    ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा देवता - अग्निः छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    अ॒रण्यो॒र्निहि॑तो जा॒तवे॑दा॒ गर्भ॑इव॒ सुधि॑तो ग॒र्भिणी॑षु। दि॒वेदि॑व॒ ईड्यो॑ जागृ॒वद्भि॑र्ह॒विष्म॑द्भिर्मनु॒ष्ये॑भिर॒ग्निः॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒रण्योः॑ । निऽहि॑तः । जा॒तऽवे॑दाः । गर्भः॑ऽइव । सुऽधि॑तः । ग॒र्भिणी॑षु । दि॒वेऽदि॑वे । ईड्यः॑ । जा॒गृ॒वत्ऽभिः॑ । ह॒विष्म॑त्ऽभिः । म॒नु॒ष्ये॑भिः । अ॒ग्निः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अरण्योर्निहितो जातवेदा गर्भइव सुधितो गर्भिणीषु। दिवेदिव ईड्यो जागृवद्भिर्हविष्मद्भिर्मनुष्येभिरग्निः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अरण्योः। निऽहितः। जातऽवेदाः। गर्भःऽइव। सुऽधितः। गर्भिणीषु। दिवेऽदिवे। ईड्यः। जागृवत्ऽभिः। हविष्मत्ऽभिः। मनुष्येभिः। अग्निः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 29; मन्त्र » 2
    अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 32; मन्त्र » 2

    भावार्थ -
    (गर्भिणीषु) गर्भिणी स्त्रियों में (गर्भः इव) जिस प्रकार गर्भ (सुधितः) अच्छी प्रकार धारण किया होता है और जिस प्रकार (जातवेदाः) प्रत्येक उत्पन्न हुए पदार्थ में विद्यमान व्यापक अग्नि भी (अरण्योः) दो अरणी नामक काष्ठों में गुप्त रूप से स्थित रहता है। उसी प्रकार (जातवेदाः) प्रत्येक उत्पन्न वा प्रसिद्ध पदार्थों को जानने वाला विद्वान् (अरण्योः) अति अधिक उत्तम मार्ग में ले जाने वाले माता पिता, गुरुजनों के अधीन (निहितः) नियमपूर्वक रक्खा जाकर और (गर्भिणीषु) अपने भीतर उसको सब प्रकार से गर्भ के समान सुरक्षित रखने वाली माताओं के समान विद्याओं के बीच गर्भ के समान ही (सुधितः) सुखपूर्वक उपदिष्ट होकर (दिवे दिवे) दिन प्रतिदिन (जागृवद्भिः) जागरणशील, अति सावधान (हविष्मद्भिः मनुष्येभिः) अग्नि को जिस प्रकार हवि चरु वाले ऋत्विज् उपासते हैं उसी प्रकार (हविष्मद्भिः) ग्राह्य ज्ञानों वाले (मनुष्येभिः) मननशील पुरुषों द्वारा (ईड्यः) उपदेश करने योग्य है। (२) इसी प्रकार यह आत्मा, जीव जो (जातवेदाः) प्रत्येक उत्पन्न प्राणी के भीतर विद्यमान है वह (अरण्योः) खूब सुप्रसन्न दम्पतियों के बीच विद्यमान रहता है। गर्भिणी माताओं द्वारा धारण किया जाता है। उत्पन्न हो जाने पर जागरणशील सावधान पुरुषों द्वारा गर्भ में रक्षा किया जाने योग्य होता है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - विश्वामित्र ऋषिः॥ १–४, ६–१६ अग्नि। ५ ऋत्विजोग्निर्वा देवता॥ छन्दः—१ निचृदनुष्टुप्। ४ विराडनुष्टुप्। १०, १२ भुरिगनुष्टुप्। २ भुरिक् पङ्क्तिः। १३ स्वराट् पङ्क्तिः। ३, ५, ६ त्रिष्टुप्। ७, ९, १६ निचृत् त्रिष्टुप्। ११, १४, १५ जगती ॥ षडदशर्चं सूक्तम्॥

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