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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 32 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 32/ मन्त्र 2
    ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा देवता - इन्द्र: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    गवा॑शिरं म॒न्थिन॑मिन्द्र शु॒क्रं पिबा॒ सोमं॑ ररि॒मा ते॒ मदा॑य। ब्र॒ह्म॒कृता॒ मारु॑तेना ग॒णेन॑ स॒जोषा॑ रु॒द्रैस्तृ॒पदा वृ॑षस्व॥

    स्वर सहित पद पाठ

    गोऽआ॑शिरम् । म॒न्थिन॑म् । इ॒न्द्र॒ । शु॒क्रम् । पिब॑ । सोम॑म् । र॒रि॒म । ते॒ । मदा॑य । ब्र॒ह्म॒ऽकृता॑ । मारु॑तेन । ग॒णेन॑ । स॒ऽजोषाः॑ । रु॒द्रैः । तृ॒पत् । आ । वृ॒ष॒स्व॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    गवाशिरं मन्थिनमिन्द्र शुक्रं पिबा सोमं ररिमा ते मदाय। ब्रह्मकृता मारुतेना गणेन सजोषा रुद्रैस्तृपदा वृषस्व॥

    स्वर रहित पद पाठ

    गोऽआशिरम्। मन्थिनम्। इन्द्र। शुक्रम्। पिब। सोमम्। ररिम। ते। मदाय। ब्रह्मऽकृता। मारुतेन। गणेन। सऽजोषाः। रुद्रैः। तृपत्। आ। वृषस्व॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 32; मन्त्र » 2
    अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 9; मन्त्र » 2

    भावार्थ -
    हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! सूर्य के समान तेजस्विन् ! जिस प्रकार (गवाशिरं शुक्रं पिबति) सूर्य किरणों से प्राप्त होने योग्य शुद्ध जल का पान करता है और (मारुतेन गणेन रुद्रैः सजोषाः वर्षति) वायुओं और गर्जते मेघों या विद्युतों से युक्त होकर जल वर्षाता है उसी प्रकार तू भी (गवाशिरम्) इन्द्रियों और भूमि निवासी प्रजाओं के द्वारा भोग और प्राप्त करने योग्य (मन्थिनम्) शत्रुओं और दुष्टों के दल को मथन या दलन करने में समर्थ (शुक्रं) बल को और शीघ्रता से काम करने वाले सेनाबल को (पिब) प्राप्त कर और पालन कर। (ते) तेरे अधीन (मदाय) तेरे ही हर्ष को बढ़ाने और (मदाय = दमाय) उसको दमन, व्यवस्थापना करने के लिये (सोमं) अभिषेक द्वारा प्राप्त होने वाले राष्ट्रैश्वर्य के पालक पद को (ररिम) प्रदान करें। तू (ब्रह्मकृता) ब्राह्मणों के द्वारा शिक्षित वा धन द्वारा वशीकृत व प्राप्त (मारुतेन) मनुष्यों, शत्रु-मारक सैनिकों के (गणेन) संख्याबद्ध दल से वा (मारुतेन गणेन) सुवर्ण के बने संख्या योग्य धन राशि से और (रुद्रैः) विद्वानों के उपदेष्टा विद्वानों और दुष्ट शत्रु को रुलाने वाले वीर पुरुषों से (सजोषाः) समान भाव से प्रीतियुक्त होकर (तृपत्) खूब तृप्त, पूर्ण होकर (आ वृषस्व) सब प्रकार से बलवान्, प्रबन्ध करने में समर्थ हो। (२) विद्वान् पुरुष इन्द्रियों को बलवान् करने वाले हृदय को मथने वाले वीर्य की रक्षा करे। तृप्ति के लिये हम अन्न दें। प्राणायाम आदि वायुगण और अन्य गौण प्राणों से सुसेवित, अन्न से तृप्त होकर बलवान् बनें। (३) आचार्य का (मदाय) विद्योपदेश के लिये शिष्य को सौपें। वह वीर्य पालन करावे (मारुतेन) वेदाध्ययन के अभ्यासी शिष्यगण और नैष्टिक ब्रह्मचारियों से युक्त होकर बढ़े।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - विश्वामित्र ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः–१–३, ७–६, १७ त्रिष्टुप्। ११–१५ निचृत्त्रिष्टुप्। १६ विराट् त्रिष्टुप्। ४, १० भुरिक् पङ्क्तिः। ५ निचृत् पङ्क्तिः। ६ विराट् पङ्क्तिः। सप्तदशर्चं सूक्तम्॥

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