ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 39/ मन्त्र 8
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - इन्द्र:
छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
ज्योति॑र्य॒ज्ञाय॒ रोद॑सी॒ अनु॑ ष्यादा॒रे स्या॑म दुरि॒तस्य॒ भूरेः॑। भूरि॑ चि॒द्धि तु॑ज॒तो मर्त्य॑स्य सुपा॒रासो॑ वसवो ब॒र्हणा॑वत्॥
स्वर सहित पद पाठज्योतिः॑ । य॒ज्ञाय॑ । रोद॑सी॒ इति॑ । अनु॑ । स्या॒त् । आ॒रे । स्या॒म॒ । दुः॒ऽइ॒तस्य॑ । भूरेः॑ । भूरि॑ । चि॒त् । हि । तु॒ज॒तः । मर्त्य॑स्य । सु॒ऽपा॒रासः॑ । व॒स॒वः॒ । ब॒र्हणा॑ऽवत् ॥
स्वर रहित मन्त्र
ज्योतिर्यज्ञाय रोदसी अनु ष्यादारे स्याम दुरितस्य भूरेः। भूरि चिद्धि तुजतो मर्त्यस्य सुपारासो वसवो बर्हणावत्॥
स्वर रहित पद पाठज्योतिः। यज्ञाय। रोदसी इति। अनु। स्यात्। आरे। स्याम। दुःऽइतस्य। भूरेः। भूरि। चित्। हि। तुजतः। मर्त्यस्य। सुऽपारासः। वसवः। बर्हणाऽवत्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 39; मन्त्र » 8
अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 26; मन्त्र » 3
अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 26; मन्त्र » 3
विषय - सूर्यवत् ज्ञान-प्रकाश की स्तुति।
भावार्थ -
(रोदसी अनु यज्ञाय ज्योतिः) दोनों के परस्पर संगति के लिये जिस प्रकार आकाश और भूमि दोनों के बीच सूर्य रूप ज्योति है उसी प्रकार (यज्ञाय) परस्पर मिलने, मित्र होकर रहने और एक दूसरे के आदर सत्कार और ईश्वर-पूजा के निमित्त भी (रोदसी अनु) राजा प्रजा, पुरुष और स्त्री दोनों को (ज्योतिः अनु स्यात्) ज्ञान का प्रकाश सदा प्राप्त हो। हम लोग (भूरेः) बहुत से (दुरितात्) दुष्टाचरण पापादि से (आरे स्याम) दूर ही रहें। हे ( वसवः) राष्ट्र में वसने वाले प्रजाजनो ! (बर्हणावत्) वृद्धि से युक्त (भूरि) बहुत से ऐश्वर्य को (तुजतः मर्त्यस्य) पालन करने वाले मनुष्य के आप लोग भी (सुपारासः) उत्तम रीति से पूर्ण करने, तृप्त करने और पालन करने वाले होकर उसके अनुगामी होकर रहो।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - विश्वामित्र ऋषिः। इन्द्रो देवता॥ छन्दः–१, ९ विराट् त्रिष्टुप्। ३–७ निचृत्त्रिष्टुप २,८ भुरिक् पङ्क्तिः॥ नवर्चं सूक्तम्॥
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