ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 40/ मन्त्र 1
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - इन्द्र:
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
इन्द्र॑ त्वा वृष॒भं व॒यं सु॒ते सोमे॑ हवामहे। स पा॑हि॒ मध्वो॒ अन्ध॑सः॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑ । त्वा॒ । वृ॒ष॒भम् । व॒यम् । सु॒ते । सोमे॑ । ह॒वा॒म॒हे॒ । सः । पा॒हि॒ । मध्वः॑ । अन्ध॑सः ॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्र त्वा वृषभं वयं सुते सोमे हवामहे। स पाहि मध्वो अन्धसः॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्र। त्वा। वृषभम्। वयम्। सुते। सोमे। हवामहे। सः। पाहि। मध्वः। अन्धसः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 40; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 1; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 1; मन्त्र » 1
विषय - राजा का राष्ट्रोपभोग।
भावार्थ -
हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन्! हे आह्लादकारी ! प्रजाजन में रमण करने वाले ! हम (त्वा वृषभं) सुख ऐश्वर्यों के वर्षक एवं बलवान् तुझको, हे अन्न को धारण करने वाले ! (सुते सोमे) उत्पन्न हुए ऐश्वर्य, राज्य पर शासन के लिये (हवामहे) प्रार्थना करते हैं। (सः) वह तू (मध्वः) आनन्दप्रद, मधुर, (अन्धसः) प्राणधारक एवं खाने योग्य अन्न आदि ओषधिवर्ग का (पाहि) ओषधिरस के समान ही पालन कर और उपभोग कर।
टिप्पणी -
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - विश्वामित्र ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः–१–४, ६–९ गायत्री। ५ निचृद्गायत्री॥ नवर्चं सूक्तम्॥
इस भाष्य को एडिट करें