ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 45/ मन्त्र 2
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृद्बृहती
स्वरः - मध्यमः
वृ॒त्र॒खा॒दो व॑लंरु॒जः पु॒रां द॒र्मो अ॒पाम॒जः। स्थाता॒ रथ॑स्य॒ हर्यो॑रभिस्व॒र इन्द्रो॑ दृ॒ळ्हा चि॑दारु॒जः॥
स्वर सहित पद पाठवृ॒त्र॒ऽखा॒दः । व॒ल॒म्ऽरु॒जः । पु॒राम् । द॒र्मः । अ॒पाम् । अ॒जः । स्थाता॑ । रथ॑स्य । हर्योः॑ । अ॒भि॒ऽस्व॒रे । इन्द्रः॑ । दृ॒ळ्हा । चि॒त् । आ॒ऽरु॒जः ॥
स्वर रहित मन्त्र
वृत्रखादो वलंरुजः पुरां दर्मो अपामजः। स्थाता रथस्य हर्योरभिस्वर इन्द्रो दृळ्हा चिदारुजः॥
स्वर रहित पद पाठवृत्रऽखादः। वलम्ऽरुजः। पुराम्। दर्मः। अपाम्। अजः। स्थाता। रथस्य। हर्योः। अभिऽस्वरे। इन्द्रः। दृळ्हा। चित्। आऽरुजः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 45; मन्त्र » 2
अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 9; मन्त्र » 2
अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 9; मन्त्र » 2
विषय - सूर्य विद्युत् वायुवत् राजा का शत्रु-उच्छेदन
भावार्थ -
जिस प्रकार (इन्द्रः) सूर्य, विद्युत् या वायु (वृत्रखादः) किरणों या वेग से मेघ को छिन्न भिन्न कर देता है (वलं-रुजः) मेघ को आघात करता है, (अपां दर्मः) जलों को विदीर्ण करता है और (अपां अजः) जलों को नीचे फेंकता है, (अभिस्वरः) जिस प्रकार विद्युत् या सूर्य खूब तेजस्वी, अति गर्जनशील होकर (दृढ़ा चित् आरुजति) दृढ़ २ पर्वतों या घने मेघों को भी भेद डालता है उसी प्रकार (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान्, शत्रुहन्ता राजा (वृत्रखादः) अपने बढ़ते या विघ्नकारी, बाधक शत्रुओं को खा जाने या अन्न जल के समान अपने बल में ही पचा जाने वाला (वलं-रुजः) अपने घेरने वाले शत्रु को प्रबल आक्रमण से तोड़ फोड़ देने वाला (पुरां दर्मः) शत्रुओं के नगरों किलों को तोड़ डालने वाला (अपाम् अजः) पास आये शत्रुओं को उखाड़ देने और अपनी आप्त सेनाओं और प्रजाओं को सन्मार्ग में चलाने हारा (हर्योः) दो घोड़ों के (रथस्य) रथ पर (स्थाता) बैठने वाला, उत्तम रथी, (अभिस्वरः) अति तेजस्वी, गर्जनावान् (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् होकर (दृढ़ाचित्) दृढ़ से दृढ़ शत्रु-दलों को भी (आरुजः) अच्छी प्रकार संहार करने में समर्थ हो।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - विश्वामित्र ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः— १, २ निचृद् बृहती। ३, ५ बृहती। ४ स्वराडनुष्टुप्॥ पञ्चर्चं सूक्तम्॥
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