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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 51 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 51/ मन्त्र 2
    ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    श॒तक्र॑तुमर्ण॒वं शा॒किनं॒ नरं॒ गिरो॑ म॒ इन्द्र॒मुप॑ यन्ति वि॒श्वतः॑। वा॒ज॒सनिं॑ पू॒र्भिदं॒ तूर्णि॑म॒प्तुरं॑ धाम॒साच॑मभि॒षाचं॑ स्व॒र्विद॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    श॒तऽक्र॑तुम् । अ॒र्ण॒वम् । शा॒किन॑म् । नर॑म् । गिरः॑ । मे॒ । इन्द्र॑म् । उप॑ । य॒न्ति॒ । वि॒श्वतः॑ । वा॒ज॒ऽसनि॑म् । पूः॒ऽभिद॑म् । तूर्णि॑म् । अ॒प्ऽतुर॑म् । धा॒म॒ऽसाच॑म् । अ॒भि॒ऽसाच॑म् । स्वः॒ऽविद॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शतक्रतुमर्णवं शाकिनं नरं गिरो म इन्द्रमुप यन्ति विश्वतः। वाजसनिं पूर्भिदं तूर्णिमप्तुरं धामसाचमभिषाचं स्वर्विदम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    शतऽक्रतुम्। अर्णवम्। शाकिनम्। नरम्। गिरः। मे। इन्द्रम्। उप। यन्ति। विश्वतः। वाजऽसनिम्। पूःऽभिदम्। तूर्णिम्। अप्ऽतुरम्। धामऽसाचम्। अभिऽसाचम्। स्वःऽविदम्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 51; मन्त्र » 2
    अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 15; मन्त्र » 2

    भावार्थ -
    (मे गिरः) मेरी वाणियां, स्तुतियां (शतक्रतुम्) सैकड़ों, अपरिमित प्रज्ञाओं और उत्तम कर्मों वाले (अर्णवम्) समुद्र के समान गम्भीर (शाकिनम्) शक्तिमान् (इन्द्रम्) ऐश्वर्यवान्, (वाजसनिम्) ऐश्वर्य, ज्ञान, संग्राम, आदि के दाता, और संविभाग करने वाले, (पूर्भिदं) देहों और शत्रु के गढ़ों के तोड़ने वाले (तूर्णिम्) शीघ्र वेग से जाने वाले (अप्तुरं) प्राणों, आप्तजनों, जलों को सूर्य या विद्युत् के समान प्रेरित करने वाले (धामसाचम्) तेज को धारण करने वाले, (अभिषाचं) साक्षात् प्राप्त होने वाले, (स्वर्विदम्) सबको सुख पहुंचाने वाले वा सूर्यवत् तेज, प्रताप और प्रकाश के प्राप्त कराने वाले (नरं) तेजस्वी पुरुष, परमात्मा वा नायक को (विश्वतः) सब प्रकार से (उप यन्ति) प्राप्त होती हैं। वे उसी का वर्णन करती हैं, उसी की स्तुति करती हैं।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - विश्वामित्र ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः–४,७-९ त्रिष्टुप्। ५, ६ निचृत्त्रिष्टुप। १-३ निचृज्जगती। १०,११ यवमध्या गायत्री। १२ विराडगायत्री॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥

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