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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 6 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 6/ मन्त्र 1
    ऋषिः - गाथिनो विश्वामित्रः देवता - अग्निः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    प्र का॑रवो मन॒ना व॒च्यमा॑ना देव॒द्रीचीं॑ नयत देव॒यन्तः॑। द॒क्षि॒णा॒वाड्वा॒जिनी॒ प्राच्ये॑ति ह॒विर्भर॑न्त्य॒ग्नये॑ घृ॒ताची॑॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । का॒र॒वः॒ । म॒न॒ना । व॒च्यमा॑नाः । दे॒व॒द्रीची॑न् । न॒य॒त॒ । दे॒व॒ऽयन्तः॑ । द॒क्षि॒णा॒ऽवाट् । वा॒जिनी॑ । प्राची॑ । ए॒ति॒ । ह॒विः । भर॑न्ती । अ॒ग्नये॑ । घृ॒ताची॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र कारवो मनना वच्यमाना देवद्रीचीं नयत देवयन्तः। दक्षिणावाड्वाजिनी प्राच्येति हविर्भरन्त्यग्नये घृताची॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र। कारवः। मनना। वच्यमानाः। देवद्रीचीम्। नयत। देवऽयन्तः। दक्षिणाऽवाट्। वाजिनी। प्राची। एति। हविः। भरन्ती। अग्नये। घृताची॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 6; मन्त्र » 1
    अष्टक » 2; अध्याय » 8; वर्ग » 26; मन्त्र » 1

    भावार्थ -
    हे (कारवः) क्रियाशील विद्वान् पुरुषो ! जिस प्रकार (मनना वच्यमानाः देवयन्तः देवद्रीचीं प्र नयन्ति) विचार पूर्वक कह गये शिल्पी लोग दानशील स्वामी की कामना करते हुए दानशील स्वामिजनों को अच्छी लगने वाली शिल्प क्रिया को करते हैं और वह शिल्पक्रिया (वाजिनी) वेग से युक्त, या ऐश्वर्य से युक्त, (दक्षिणा-वाट्) दक्षिणा या मजदूरी पैदा करने वाली और (प्राची) बहुत उत्तम रूप से प्रकट होकर (अग्नये घृताची) अग्नि में जुहू जैसे (अग्नये हविः भरन्ती एति) अग्रणी तेजस्वी पुरुष को अन्न, सुख आदि पदार्थ पूर्ण करती हुई प्राप्त होती है और जिस प्रकार (कारवः) यज्ञ कर्त्ता लोग (देवयन्तः) परमेश्वर की उपासना करते हुए (मनना वच्यमानाः) मन्त्र द्वारा प्रेरित होकर (देवीद्रीचीं प्रनयन्ति) ईश्वरोपासना युक्त वाणी को और यज्ञ क्रिया या स्रुचा को आगे करते हैं। (दक्षिणावाट्) दक्षिण दिशा से लाई जाकर (घृताची हविर्भरती) घृत से युक्त होकर ग्रहण करती हुई यज्ञ में ‘जुहू’ नाम स्रुक् (प्राची) पूर्व की ओर (अग्नये) अग्नि का लक्ष्य करके (एति) आगे बढ़ती है उसी प्रकार हे (कारवः) कर्मण्य क्रियाशील पुरुषो ! आप लोग भी (मनना) मनन शील पुरुष से (वच्यमानाः) उपदेश किये जाकर (देवयन्तः) उत्तम गुणों और ज्ञान दानशील विद्वानों की कामना करते हुए, उनको मन से चाहते हुए (देवद्रीचीं प्रनयत) विद्वान् दानी और ज्ञानदाता गुरुजनों की परम पूजा, सत्कार क्रिया को अच्छी प्रकार किया करो। और (अग्नये) ज्ञानवान् विद्वान् पुरुष के सुख के लिये (घृताची) तेज और पौष्टिक पदार्थ को प्राप्त करने वाली (दक्षिणावाट्) क्रिया शक्ति को धारण करने वाली, (वाजिनी) बल, ज्ञान और ऐश्वर्य से युक्त (प्राची) उत्तम गमन या आचरण वाली, उत्तम सत्कार रूप क्रिया उत्तम पत्नी के समान (अग्नये) अग्रणी, ज्ञानवान् एवं नायक पुरुष के मान आदर के लिये (हविः भरन्ती) ग्राह्य, उपहार, अन्नादि प्राप्त कराती हुई (एति) प्राप्त हो।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - विश्वामित्र ऋषिः॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः– १, ५ विराट् त्रिष्टुप। २, ७ त्रिष्टुप्। ३, ४, ८ निचृत् त्रिष्टुप्। १० भुरिक् त्रिष्टुप् । ६, ११ भुरिक् पङ्क्तिः। ९ स्वराट् पङ्क्तिः॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥

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