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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 8 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 8/ मन्त्र 1
    ऋषिः - गाथिनो विश्वामित्रः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अ॒ञ्जन्ति॒ त्वाम॑ध्व॒रे दे॑व॒यन्तो॒ वन॑स्पते॒ मधु॑ना॒ दैव्ये॑न। यदू॒र्ध्वस्तिष्ठा॒ द्रवि॑णे॒ह ध॑त्ता॒द्यद्वा॒ क्षयो॑ मा॒तुर॒स्या उ॒पस्थे॑॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ञ्जन्ति॑ । त्वाम् । अ॒ध्व॒रे । दे॒व॒ऽयन्तः॑ । वन॑स्पते । मधु॑ना । दैव्ये॑न । यत् । ऊ॒र्ध्वः । ति॒ष्ठाः॑ । द्रवि॑ना । इ॒ह । ध॒त्ता॒त् । यत् । वा॒ । क्षयः॑ । मा॒तुः । अ॒स्याः । उ॒पऽस्थे॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अञ्जन्ति त्वामध्वरे देवयन्तो वनस्पते मधुना दैव्येन। यदूर्ध्वस्तिष्ठा द्रविणेह धत्ताद्यद्वा क्षयो मातुरस्या उपस्थे॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अञ्जन्ति। त्वाम्। अध्वरे। देवऽयन्तः। वनस्पते। मधुना। दैव्येन। यत्। ऊर्ध्वः। तिष्ठाः। द्रविणा। इह। धत्तात्। यत्। वा। क्षयः। मातुः। अस्याः। उपऽस्थे॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 8; मन्त्र » 1
    अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 3; मन्त्र » 1

    भावार्थ -
    हे (वनस्पते) किरणों के पालक सूर्य के समान राष्ट्रैश्वर्य के विभागों के भोक्ता, प्रजाजनों के पालक, विद्या की याचना करनेवाले शिष्यजनों के पालक विद्वन् ! तू (यत्) जब (ऊर्ध्वः) गुणों और अधिकारों में सबसे उत्कृष्ट होकर (तिष्ठ) रह । और (इह) इस राष्ट्र और शिष्य में (द्रविणा) नाना ऐश्वर्य (धत्तात्) धारण करा (यत् वा) और जब (अस्याः मातुः) इस सर्वोत्पादक माता पृथिवी के (उपस्थे) गोद में बालक के समान (क्षयः) तेरा निवास हो तब जिस प्रकार (देवयन्तः दैव्येन मधुना अञ्जन्ति) सूर्य की किरणें जल देनेवाले मेघ के समान होकर मेघस्थ जल से भूमि को सींचते हैं और वे स्वयं प्रकाशमान होकर सूर्य के प्रकाश से समस्त भूमि को प्रकाशित करते हैं उसी प्रकार (अध्वरे) हिंसा रहित, प्रजाओं को नाश न करनेवाले राष्ट्रपालन रूप व्यवहार में (त्वाम्) तुझको (देवयन्तः) चाहते हुए (दैव्येन) देव, विद्वानों के योग्य (मधुना) अन्न और ज्ञान से (त्वाम् अञ्जन्ति) तुझे प्रकाशित करते और तुझे ही चाहते हैं । (२) शिष्य के पक्ष में—(देवयन्तः) विद्वान् जन मुझे चाहते हुए ज्ञान से तुझे चमकावें तू ऊंचा, उन्नत हो, माता के समान पालक ज्ञान-जन्म के दाता, ज्ञानवान् आचार्य के समीप तेरा निवास हो।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - विश्वामित्र ऋषिः॥ विश्वेदेवा देवता॥ छन्दः- १, ८, ९, १० निचृत् त्रिष्टुप्। ५, ६, ११ त्रिष्टुप्॥ ४ स्वराट् त्रिष्टुप्। ३, ७ स्वराडनुष्टुप्॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥

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