ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 14/ मन्त्र 3
तं हि शश्व॑न्त॒ ईळ॑ते स्रु॒चा दे॒वं घृ॑त॒श्चुता॑। अ॒ग्निं ह॒व्याय॒ वोळ्ह॑वे ॥३॥
स्वर सहित पद पाठतम् । हि । शश्व॑न्तः । ईळ॑ते । स्रु॒चा । दे॒वम् । घृ॒त॒ऽश्चुता॑ । अ॒ग्निम् । ह॒व्याय॑ । वोळ्ह॑वे ॥
स्वर रहित मन्त्र
तं हि शश्वन्त ईळते स्रुचा देवं घृतश्चुता। अग्निं हव्याय वोळ्हवे ॥३॥
स्वर रहित पद पाठतम्। हि। शश्वन्तः। ईळते। स्रुचा। देवम्। घृतऽश्चुता। अग्निम्। हव्याय। वोळ्हवे ॥३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 14; मन्त्र » 3
अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 6; मन्त्र » 3
अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 6; मन्त्र » 3
विषय - यज्ञाग्निवत् उसकी उपचर्या ।
भावार्थ -
भा०-जिस प्रकार ( शश्वन्तः ) उत्तम स्तुतिशील जन (हव्याय-वोडवे ) हव्य चरु आदि उत्तम पदार्थों को अपने में भस्म कर सर्वत्र फैला देने के लिये ( घृत- श्चुता स्रुचा ) घृत चुआ देने वाले स्रुचा नाम पात्र से ( देवं ईडते ) तेजोमय देदीप्यमान अग्निं को प्राप्त करते हैं उसी प्रकार ( शश्वन्तः ) नित्य जीव गण और विद्वान् लोग ( घृत- श्चुता ) तेज को देने वाले ( स्रुचा ) 'स्रुच' गतिशील प्राण के द्वारा ( हव्याय वो- ढवे ) खाद्य पदार्थ को अपने भीतर लेने के लिये ) जाठराग्नि को, और ( घृत-श्चुता स्रुता हव्याय वोढवे ) तेज और जल के बरसने वाले सूर्य और मेघ द्वारा अन्न जल के प्राप्त कराने के लिये ( तं ) उस तेजोमय सूर्य की ही (ईडते ) प्रशंसा करते उसको ही मुख्य कारण बतलाते हैं, और ज्ञान प्रकाश के देने वाली वाणी द्वारा 'हव्य' ग्राह्य ज्ञान प्रदान करने के लिये ( तं ) उस पूज्य आचार्य की अर्चना करें ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - सुतम्भर आत्रेय ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः — १, ४, ५, ६ निचृद् गायत्री । २ विराडगायत्री । ३ गायत्री ॥ षडृचं सूक्तम् ॥
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