ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 54/ मन्त्र 1
प्र शर्धा॑य॒ मारु॑ताय॒ स्वभा॑नव इ॒मां वाच॑मनजा पर्वत॒च्युते॑। घ॒र्म॒स्तुभे॑ दि॒व आ पृ॑ष्ठ॒यज्व॑ने द्यु॒म्नश्र॑वसे॒ महि॑ नृ॒म्णम॑र्चत ॥१॥
स्वर सहित पद पाठप्र । शर्धा॑य । मारु॑ताय । स्वऽभा॑नवः । इ॒माम् । वाच॑म् । अ॒न॒ज॒ । प॒र्व॒त॒ऽच्युते॑ । घ॒र्म॒ऽस्तुभे॑ । दि॒वः । आ । पृ॒ष्ठ॒ऽयज्व॑ने । द्यु॒म्नऽश्र॑वसे । महि॑ । नृ॒म्णम् । अ॒र्च॒त॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र शर्धाय मारुताय स्वभानव इमां वाचमनजा पर्वतच्युते। घर्मस्तुभे दिव आ पृष्ठयज्वने द्युम्नश्रवसे महि नृम्णमर्चत ॥१॥
स्वर रहित पद पाठप्र। शर्धाय। मारुताय। स्वऽभानवे। इमाम्। वाचम्। अनज। पर्वतऽच्युते। घर्मऽस्तुभे दिवः। आ। पृष्ठऽयज्वने। द्युम्नऽश्रवसे। महि। नृम्णम्। अर्चत ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 54; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 14; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 14; मन्त्र » 1
विषय - विद्वानों के कर्त्तव्य ।
भावार्थ -
भा०-हे विद्वान् पुरुषो ! आप लोग ( मारुताय ) वायु के समान प्रबल, शत्रुनाशक पुरुषों के ( स्व-भानवे ) स्वयं देदीप्यमान (पर्वत-च्युते ) मेघ वा पर्वत के समान प्रबल शत्रु को भी छिन्न भिन्न करने वा उखाड़ देने में समर्थ, (शर्धाय) बल को बढ़ाने और प्राप्त करने के लिये (इमां) इस ( वाचं ) वेद वाणी का ( मारुताय ) मनुष्यों के समूह को ( अनज ) उपदेश करो । ( दिवः धर्म-स्तुभे ) सूर्यवत् तेजस्वी, पुरुष के तेज को स्तुति या उपासना करने वाले ( पृष्ठ-यज्वने ) अपने पीछे आने वाले शिष्यों को भी ज्ञान का दान करने वा पीठ पीछे भी गुरुजनों का आदर सत्कार करने वाले (द्युम्न-श्रवसे ) यश, धन और श्रवणीय ज्ञान से सम्पन्न पुरुष को (महि नृम्णम् ) मनुष्यों से पुनः अभ्यास करने योग्य बड़े भारी ज्ञान और मनुष्यों के मनोभिलषित धन राशि का ( अर्चत ) आदर पूर्वक दान किया करो ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - श्यावाश्व आत्रेय ऋषिः ॥ मरुतो देवताः ॥ छन्दः- १, ३, ७, १२ जगती । २ विराड् जगती । ६ भुरिग्जगती । ११, १५. निचृज्जगती । ४, ८, १० भुरिक् त्रिष्टुप । ५, ९, १३, १४ त्रिष्टुप् ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥
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