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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 59 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 59/ मन्त्र 7
    ऋषिः - श्यावाश्व आत्रेयः देवता - मरुतः छन्दः - जगती स्वरः - निषादः

    वयो॒ न ये श्रेणीः॑ प॒प्तुरोज॒सान्ता॑न्दि॒वो बृ॑ह॒तः सानु॑न॒स्परि॑। अश्वा॑स एषामु॒भये॒ यथा॑ वि॒दुः प्र पर्व॑तस्य नभ॒नूँर॑चुच्यवुः ॥७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वयः॑ । न । ये । श्रेणीः॑ । प॒प्तुः । ओज॑सा । अन्ता॑न् । दि॒वः । बृ॒ह॒तः । सानु॑नः । परि॑ । अश्वा॑सः । ए॒षा॒म् । उ॒भये॑ । यथा॑ । वि॒दुः । प्र । पर्व॑तस्य । न॒भ॒नून् । अ॒चु॒च्य॒वुः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वयो न ये श्रेणीः पप्तुरोजसान्तान्दिवो बृहतः सानुनस्परि। अश्वास एषामुभये यथा विदुः प्र पर्वतस्य नभनूँरचुच्यवुः ॥७॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वयः। न। ये। श्रेणीः। पप्तुः। ओजसा। अन्तान्। दिवः। बृहतः। सानुनः। परि। अश्वासः। एषाम्। उभये। यथा। विदुः। प्र। पर्वतस्य। नभनून्। अचुच्यवुः ॥७॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 59; मन्त्र » 7
    अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 24; मन्त्र » 7

    भावार्थ -
    भा०—जो वायुवत् बलवान् वीर सैनिक गण ( वयः ) पक्षियों वा सूर्य की किरणों के समान (श्रेणी: ) श्रेणियां या पंक्तियें बनाकर (पप्तु: ) प्रयाण करते और (ओजसा ) बल पराक्रम से (बृहतः दिवः) बड़े २ व्यवहारों वा बड़ी कामनाओं को और ( सानुनः परि ) अन्न शिखर-वत् भोगने योग्य उत्तम पद के ऊपर भी प्राप्त होते हैं। जिस प्रकार वायु गण ( पर्वतस्य नभनून् अचूच्यवुः ) मेघ की गर्जती जल-धारों और वज्रों को चलाते वा गिराते हैं उसी प्रकार ( एषाम् ) इनके (उभये) दोनों प्रकार के ( अश्वासः ) अश्वारोही जन ( यथा विदुः ) जैसा भी जानते और ऐश्वर्यादि प्राप्त करते हैं तद्नुसार, (पर्वतस्य) अपने परिपालक राजा वा सेनापति के ( नभनून् ) आज्ञा के वचनों को ( प्र अचुच्युवुः ) अच्छी प्रकार पालन करते हैं । पूर्वार्ध में कहे इनके अश्वों को दो प्रकार जानें एक जो पंक्तिबद्ध होकर चलें दूसरे जो मुख्य पद पर स्थित हों वा स्वयं व्यवहार व्यापार एवं नाना कार्यों में नियुक्त होकर पृथक् २ जावें ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - श्यावाश्व आत्रेय ऋषिः ॥ मरुतो देवताः ॥ छन्द:- १, ४ विराड् जगती । २, ३, ६ निचृज्जगती । ५ जगती । ७ स्वराट् त्रिष्टुप् । ८ निचृत् त्रिष्टुप् ॥

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