ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 61/ मन्त्र 1
ऋषिः - श्यावाश्व आत्रेयः
देवता - मरुतो वाग्निश्च
छन्दः - जगती
स्वरः - निषादः
के ष्ठा॑ नरः॒ श्रेष्ठ॑तमा॒ य एक॑एक आय॒य। प॒र॒मस्याः॑ परा॒वतः॑ ॥१॥
स्वर सहित पद पाठकः । स्थ॒ । न॒रः॒ । श्रेष्ठ॑ऽतमाः । ये । एकः॑ऽएकः । आ॒ऽय॒य । प॒र॒मस्याः॑ । प॒रा॒ऽवतः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
के ष्ठा नरः श्रेष्ठतमा य एकएक आयय। परमस्याः परावतः ॥१॥
स्वर रहित पद पाठके। स्थ। नरः। श्रेष्ठऽतमाः। ये। एकःऽएकः। आऽयय। परमस्याः। पराऽवतः ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 61; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 26; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 26; मन्त्र » 1
विषय - मरुतों के दृष्टान्त से प्रजाजनों, वीरों, विद्वानों के कर्त्तव्यों का वर्णन । परस्पर कुशलप्रश्न व्यवहार का उपदेश । अध्यात्म में - प्राणों का वर्णन ।
भावार्थ -
भा०- मनुष्यों को परस्पर किस प्रकार कुशल प्रश्न आदि व्यवहार करना चाहिये इसका उपदेश करते हैं। हे ( नरः ) विद्वान् पुरुषो ! आप लोग ( के स्थ) कौन हैं । ( ये ) जो ( श्रेष्ठतमाः ) अति श्रेष्ठ हैं वे ( एकः एकः ) आप एक एक करके ( परमस्याः) परम, सर्वोत्तम बहुत ही ( परावतः ) दूर की सीमा से ( आयय ) आया करते हैं। दूर २ के देश से आने वाले एक २ व्यक्ति का भी आदरपूर्वक आतिथ्य करना चाहिये । उनका नाम पूछते रहना चाहिये ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - श्यावाश्व आत्रेय ऋषिः ॥ १–४, ११–१६ मरुतः । ५-८ शशीयसी तरन्तमहिषी । पुरुमीळहो वैददश्विः । १० तरन्तो वैददश्विः । १७ – १९ रथवीतिर्दाल्भ्यो देवताः ॥ छन्दः – १ –४, ६–८, १०– १९ गायत्री । ५ अनुष्टुप् । ९ सतोबृहती ॥ एकोनविंशत्यृचं सूक्तम् ॥
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