ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 62/ मन्त्र 1
ऋषिः - श्यावाश्व आत्रेयः
देवता - रथवीतिर्दाल्भ्यः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
ऋ॒तेन॑ ऋ॒तमपि॑हितं ध्रु॒वं वां॒ सूर्य॑स्य॒ यत्र॑ विमु॒चन्त्यश्वा॑न्। दश॑ श॒ता स॒ह त॑स्थु॒स्तदेकं॑ दे॒वानां॒ श्रेष्ठं॒ वपु॑षामपश्यम् ॥१॥
स्वर सहित पद पाठऋ॒तेन॑ । ऋ॒तम् । अपि॑ऽहितम् । ध्रु॒वम् । वा॒म् । सूर्य॑स्य । यत्र॑ । वि॒ऽमु॒चन्ति॑ । अश्वा॑न् । दश॑ । श॒ता । स॒ह । त॒स्थुः॒ । तत् । एक॑म् । दे॒वाना॑म् । श्रेष्ठ॑म् । वपु॑षाम् । अ॒प॒श्य॒म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
ऋतेन ऋतमपिहितं ध्रुवं वां सूर्यस्य यत्र विमुचन्त्यश्वान्। दश शता सह तस्थुस्तदेकं देवानां श्रेष्ठं वपुषामपश्यम् ॥१॥
स्वर रहित पद पाठऋतेन। ऋतम्। अपिऽहितम्। ध्रुवम्। वाम्। सूर्यस्य। यत्र। विऽमुचन्ति। अश्वान्। दश। शता। सह। तस्थुः। तत्। एकम्। देवानाम्। श्रेष्ठम्। वपुषाम्। अपश्यम् ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 62; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 30; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 30; मन्त्र » 1
विषय - सूर्यवत् राजा प्रजा वर्गों को सत्य व्यवहार का उपदेश ।
भावार्थ -
भा०-जिस प्रकार ( ऋतम् ) सत्यस्वरूप सूर्य का मण्डल (ऋतेन अपहितं) तेज से आच्छादित है, ( यत्र ) जिस सूर्य के आश्रित रह कर नाना ग्रह उपग्रह आदि ( सूर्यस्य ) सूर्य के ही ( दश शता अश्वान् विमुचन्ति) हजारों किरणों को विविध रूप से धारण करते और प्रतिक्षिप्त करते हैं और जिस सूर्य के आश्रय ही वे (सह तस्थुः ) एक साथ मिलकर स्थित हैं ( तत् ) वह (एक) एक (देवानां ) तेजो युक्त, ( वपुषां श्रेष्ठं ) पिण्डों में सर्वश्रेष्ठ, (ध्रुवं ) स्थिर, निश्चल सूर्य है उसी प्रकार हे स्त्री पुरुषो ! राजा प्रजावर्गो ! ( वां ) आप दोनों वर्गों का (ध्रुवं ) स्थिर (ऋतम् ) सत्य व्यवहार भी ( ऋतेन ) सत्य वेद, ज्ञान से ( अपिहितम् ) आच्छादित तन्मय हो । ( यत्र ) जिस प्रधान नायक के आश्रय पर ( सूर्यस्य ) सूर्य के समान तेजस्वी राजा के ( दश शता अश्वान् विमुचन्ति) हजारों घुड़सवार दौड़ रहे हैं और ( सह तस्थुः ) सब एक साथ विद्यमान रहते हैं (तत् एकं ) उस एक को ( वपुषां देवानां ) देहधारी मनुष्यों के बीच (श्रेष्ठं) सर्व श्रेष्ठ रूप से ( अपश्यम् ) देखता हूं । वही ( ऋतम् ध्रुवं ) सत्य परमैश्वर्य, न्यायरूप है ।
टिप्पणी -
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - श्रुतिविदात्रेय ऋषिः ॥ मित्रावरुणौ देवते ॥ छन्द:- १, २ त्रिष्टुप् । ३, ४, ५, ६ निचृत्-त्रिष्टुप् । ७, ८, ९ विराट् त्रिष्टुप ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥
इस भाष्य को एडिट करें