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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 68 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 68/ मन्त्र 2
    ऋषिः - यजत आत्रेयः देवता - मित्रावरुणौ छन्दः - विराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    स॒म्राजा॒ या घृ॒तयो॑नी मि॒त्रश्चो॒भा वरु॑णश्च। दे॒वा दे॒वेषु॑ प्रश॒स्ता ॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒म्ऽराजा॑ । या । घृ॒तयो॑नी॒ इति॑ घृ॒तऽयो॑नी । मि॒त्रः । च॒ । उ॒भा । वरु॑णः । च॒ । दे॒वा । दे॒वेषु॑ । प्र॒ऽश॒स्ता ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सम्राजा या घृतयोनी मित्रश्चोभा वरुणश्च। देवा देवेषु प्रशस्ता ॥२॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सम्ऽराजा। या। घृतयोनी इति घृतऽयोनी। मित्रः। च। उभा। वरुणः। च। देवा। देवेषु। प्रऽशस्ता ॥२॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 68; मन्त्र » 2
    अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 6; मन्त्र » 2

    भावार्थ -
    भा०-जिस प्रकार ( घृत-योनी ) जल और स्निग्ध पदार्थ से उत्पन्न होने वाले वैद्युत् और भौम अग्नि दोनों (सम्राजा ) अच्छी प्रकार चमकते हैं और ( देवेषु प्रशस्ता ) प्रकाशमान् पदार्थों में उत्तम हों उसी प्रकार (या) जो दोनों (घृत-योनी ) तेज या दीप्ति के आश्रय पर रहने वाले ( सम्राजा ) अच्छी प्रकार चमकने वाले, अति तेजस्वी (मित्रः वरुणः च ) स्नेही, सर्वप्रिय और सर्वश्रेष्ठ सभा व सेना के ( उभा ) दोनों अध्यक्ष हैं वे (देवा) दानशील दोनों पुरुष ( देवेषु ) उपस्थित विद्वानों और विजिगीषु पुरुषों के दोनों वर्गों में ( प्रशस्ता ) उत्तम प्रशंसनीय हों ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - यजत आत्रेय ऋषिः ॥ मित्रावरुणौ देवते ॥ छन्द:- १, २ गायत्री । ३,४ निचृद्गायत्री । ५ विराड् गायत्री ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥

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