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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 68 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 68/ मन्त्र 4
    ऋषिः - यजत आत्रेयः देवता - मित्रावरुणौ छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    ऋ॒तमृ॒तेन॒ सप॑न्तेषि॒रं दक्ष॑माशाते। अ॒द्रुहा॑ दे॒वौ व॑र्धेते ॥४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ऋ॒तम् । ऋ॒तेन॑ । सप॑न्ता । इ॒षि॒रम् । दक्ष॑म् । आ॒शा॒ते॒ इति॑ । अ॒द्रुहा॑ । दे॒वौ । व॒र्धे॒ते॒ इति॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ऋतमृतेन सपन्तेषिरं दक्षमाशाते। अद्रुहा देवौ वर्धेते ॥४॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ऋतम्। ऋतेन। सपन्ता। इषिरम्। दक्षम्। आशाते इति। अद्रुहा। देवौ। वर्धेते इति ॥४॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 68; मन्त्र » 4
    अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 6; मन्त्र » 4

    भावार्थ -
    भा०- आप दोनों (अद्रुहा) परस्पर कभी द्रोह न करते हुए (देवा) तेजस्वी, दानशील, एक दूसरे की सत्कामना करते हुए (ऋतम् ऋतेन सपन्ता) ऐश्वर्य को सत्य व्यवहार और न्याय से प्राप्त करते हुए (इषिरम् दक्षम् ) इच्छानुकूल सबको शासन करने वाले, सर्व प्रेरक बल और ज्ञान को (आशाते) प्राप्त करो और (वर्धेते) बढ़ो, वृद्धि को प्राप्त होओ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - यजत आत्रेय ऋषिः ॥ मित्रावरुणौ देवते ॥ छन्द:- १, २ गायत्री । ३,४ निचृद्गायत्री । ५ विराड् गायत्री ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥

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