ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 68/ मन्त्र 4
ऋ॒तमृ॒तेन॒ सप॑न्तेषि॒रं दक्ष॑माशाते। अ॒द्रुहा॑ दे॒वौ व॑र्धेते ॥४॥
स्वर सहित पद पाठऋ॒तम् । ऋ॒तेन॑ । सप॑न्ता । इ॒षि॒रम् । दक्ष॑म् । आ॒शा॒ते॒ इति॑ । अ॒द्रुहा॑ । दे॒वौ । व॒र्धे॒ते॒ इति॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
ऋतमृतेन सपन्तेषिरं दक्षमाशाते। अद्रुहा देवौ वर्धेते ॥४॥
स्वर रहित पद पाठऋतम्। ऋतेन। सपन्ता। इषिरम्। दक्षम्। आशाते इति। अद्रुहा। देवौ। वर्धेते इति ॥४॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 68; मन्त्र » 4
अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 6; मन्त्र » 4
अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 6; मन्त्र » 4
विषय - वैद्युत और भौम अग्निवत् सभा-सेना के अध्यक्षों के कर्त्तव्य ।
भावार्थ -
भा०- आप दोनों (अद्रुहा) परस्पर कभी द्रोह न करते हुए (देवा) तेजस्वी, दानशील, एक दूसरे की सत्कामना करते हुए (ऋतम् ऋतेन सपन्ता) ऐश्वर्य को सत्य व्यवहार और न्याय से प्राप्त करते हुए (इषिरम् दक्षम् ) इच्छानुकूल सबको शासन करने वाले, सर्व प्रेरक बल और ज्ञान को (आशाते) प्राप्त करो और (वर्धेते) बढ़ो, वृद्धि को प्राप्त होओ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - यजत आत्रेय ऋषिः ॥ मित्रावरुणौ देवते ॥ छन्द:- १, २ गायत्री । ३,४ निचृद्गायत्री । ५ विराड् गायत्री ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥
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