ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 12/ मन्त्र 5
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - अग्निः
छन्दः - स्वराट्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
अध॑ स्मास्य पनयन्ति॒ भासो॒ वृथा॒ यत्तक्ष॑दनु॒याति॑ पृ॒थ्वीम्। स॒द्यो यः स्य॒न्द्रो विषि॑तो॒ धवी॑यानृ॒णो न ता॒युरति॒ धन्वा॑ राट् ॥५॥
स्वर सहित पद पाठअध॑ । स्म॒ । अ॒स्य॒ । प॒न॒य॒न्ति॒ । भासः॑ । वृथा॑ । यत् । तक्ष॑त् । अ॒नु॒ऽयाति॑ । पृ॒थ्वीम् । स॒द्यः । यः । स्प॒न्द्रः । विऽसि॑तः । धवी॑यान् । ऋ॒णः । न । ता॒युः । अति॑ । धन्व॑ । राट् ॥
स्वर रहित मन्त्र
अध स्मास्य पनयन्ति भासो वृथा यत्तक्षदनुयाति पृथ्वीम्। सद्यो यः स्यन्द्रो विषितो धवीयानृणो न तायुरति धन्वा राट् ॥५॥
स्वर रहित पद पाठअध। स्म। अस्य। पनयन्ति। भासः। वृथा। यत्। तक्षत्। अनुऽयाति। पृथ्वीम्। सद्यः। यः। स्यन्द्रः। विऽसितः। धवीयान्। ऋणः। न। तायुः। अति। धन्व। राट् ॥५॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 12; मन्त्र » 5
अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 14; मन्त्र » 5
अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 14; मन्त्र » 5
विषय - द्रवत् विद्युत् का वर्णन, उसके सदृश प्रजानुरंजक राजा के कर्त्तव्य ।
भावार्थ -
यह अग्नि या विद्युत् ( यत् भासः तक्षत् ) जिन दीप्तियों को पैदा करता है और जो यह ( पृथ्वीम् अनुयाति) विद्युत् भूमि की ओर वेग से चला जाता है लोग (अस्य भासः पनयन्ति) इसकी दीप्तियों की प्रशंसा करते हैं और जिस प्रकार अग्नि, विद्युत् ( स्यन्द्रः ) जलवत् (विषितः ) बन्धनयुक्त होकर बहने वाला, गतिशील, ( धवीयान् ) शरीर को स्पर्श करते ही कंपा देने वाला, ( तायुः न ऋणः ) चोर के समान चुप चाप निकल भागने वाला, ( धन्वा अति राट् ) अन्तरिक्ष में खूब चमकता है। उसी प्रकार यह राजा (यत् भासः वृथा तक्षत्) जब तेज अनायास उत्पन्न कर लेता है और तो भी ( पृथ्वीम् अनुयाति ) पृथ्वी अर्थात् देशवासिनी प्रजा का ही अनुगमन करता है, (अध) तब लोग ( अस्य ) इसके ( भासः ) तेजों कान्तियों या चमकते गुणों की ( पनयन्ति ) प्रशंसा किया करते हैं । ( यः ) जो राजा ( स्यन्द्रः ) वेग से रथादि से जाने में कुशल, ( वि-सितः ) स्वतः बन्धन से मुक्त या विशेष राज नियमों से बद्ध, ( धवीयान् ) शत्रुओं को कंपा देने वाला वा प्रजा या पृथ्वी रूप पत्नी का सबसे उत्तम पति होकर भी (तायु: न) चोर के समान अलक्षित भाव से पृथ्वी का भोग वा प्रजा का वर्धन करने वाला होकर (धन्वा ) धनुष के बल से (अति राट्) सब से अधिक तेजस्वी राजा होकर चमकता है।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः – १ त्रिष्टुप् । २ निचृत् त्रिष्टुप् । ३ भुरिक् पंक्ति: । ५ स्वराट् पंक्ति: ॥ षडृचं सूक्तम् ॥
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