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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 25 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 25/ मन्त्र 9
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    ए॒वा नः॒ स्पृधः॒ सम॑जा स॒मत्स्विन्द्र॑ रार॒न्धि मि॑थ॒तीरदे॑वीः। वि॒द्याम॒ वस्तो॒रव॑सा गृ॒णन्तो॑ भ॒रद्वा॑जा उ॒त त॑ इन्द्र नू॒नम् ॥९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒व । नः॒ । स्पृधः॑ । सम् । अ॒ज॒ । स॒मत्ऽसु॑ । इन्द्र॑ । र॒र॒न्धि । मि॒थ॒तीः । अदे॑वीः । वि॒द्याम॑ । वस्तोः॑ । अव॑सा । गृ॒णन्तः॑ । भ॒रत्ऽवा॑जाः । उ॒त । ते॒ । इ॒न्द्र॒ । नू॒नम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एवा नः स्पृधः समजा समत्स्विन्द्र रारन्धि मिथतीरदेवीः। विद्याम वस्तोरवसा गृणन्तो भरद्वाजा उत त इन्द्र नूनम् ॥९॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एव। नः। स्पृधः। सम्। अज। समत्ऽसु। इन्द्र। ररन्धि। मिथतीः। अदेवीः। विद्याम। वस्तोः। अवसा। गृणन्तः। भरत्ऽवाजाः। उत। ते। इन्द्र। नूनम् ॥९॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 25; मन्त्र » 9
    अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 20; मन्त्र » 4

    भावार्थ -
    हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्य के देने वाले ! तू ( एव ) इस प्रकार ( समत्सु ) युद्ध के अवसरों पर ( नः ) हमारे ( स्पृधः ) प्रतिस्पर्धा करने वाले शत्रुओं को ( सम् अज) अच्छी प्रकार उखाड़ फेंक, और ( स्पृधः सम् अज) स्पृहा अर्थात् प्रेम करने वालों को मिला । ( अदेवी: मिथतीः ) ऐश्वर्य वा कर आदि न देने वाली, तथा परस्पर नाश करने वाली सेनाओं और प्रजाओं को ( रारन्धि ) वश कर । हम ( ते अवसा ) तेरे रक्षा सामर्थ्य से ( नूनम् ) निश्चयपूर्वक (गृणन्तः ) तेरी स्तुति करते हुए ( भरद्-वाजा: ) ज्ञान और ऐश्वर्यका धारण करने वाले होकर (वस्तो:) राष्ट्र में बसने का सुख (विद्याम) प्राप्त करें । इति विंशो वर्गः ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः । इन्द्रो देवता । छन्दः – १, ५ पंक्तिः । ३ भुर्रिक् पंक्तिः । २, ७, ८, ९ निचृत्त्रिष्टुप् । ४, ६ त्रिष्टुप् ।। नवर्च सूक्तम् ॥

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