ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 30/ मन्त्र 1
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
भूय॒ इद्वा॑वृधे वी॒र्या॑यँ॒ एको॑ अजु॒र्यो द॑यते॒ वसू॑नि। प्र रि॑रिचे दि॒व इन्द्रः॑ पृथि॒व्या अ॒र्धमिद॑स्य॒ प्रति॒ रोद॑सी उ॒भे ॥१॥
स्वर सहित पद पाठभूयः॑ । इत् । व॒वृ॒धे॒ । वी॒र्या॑य । एकः॑ । अ॒जु॒र्यः । द॒य॒ते॒ । वसू॑नि । प्र । रि॒रि॒चे॒ । दि॒वः । इन्द्रः॑ । पृ॒थि॒व्याः । अ॒र्धम् । इत् । अ॒स्य॒ । प्रति॑ । रोद॑सी॒ इति॑ । उ॒भे इति॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
भूय इद्वावृधे वीर्यायँ एको अजुर्यो दयते वसूनि। प्र रिरिचे दिव इन्द्रः पृथिव्या अर्धमिदस्य प्रति रोदसी उभे ॥१॥
स्वर रहित पद पाठभूयः। इत्। ववृधे। वीर्याय। एकः। अजुर्यः। दयते। वसूनि। प्र। रिरिचे। दिवः। इन्द्रः। पृथिव्याः। अर्धम्। इत्। अस्य। प्रति। रोदसी इति। उभे इति ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 30; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 2; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 2; मन्त्र » 1
विषय - सूर्य पृथिवीवत् राजा भूमि का प्रकाश्य-प्रकाशक भाव । सूर्यवत् उसका महान् प्रभाव ।
भावार्थ -
( इन्द्रः पृथिव्याः अर्धम् प्रति भवति ) सूर्य पृथिवी के आधे के प्रति प्रकाश करता है, ( पृथिवी दिवः अर्धम् प्रति ) और पृथिवी प्रकाश के आधे ही अंश को ग्रहण करती है परन्तु तो भी ( उभे ) दोनों मिलकर ( रोदसी ) आकाश और पृथिवी मिलकर रहते हैं उन दोनों में से ( इन्द्रः) सूर्य ही ( प्र रिरिचे) अधिक शक्तिशाली है, ( उभे रोदसीप्रति ) आकाश और पृथिवी दोनों को व्यापता है, उसी प्रकार ( इन्द्रः ) तेजस्वी राजा ( दिवः पृथिव्याः ) आकाश और पृथिवीवत् विजयिनी सेना वा राजविद्वत्-सभा और पृथिवीवासी प्रजा दोनों से ( प्र रिरिचे ) बहुत बड़ा है । ( उभे रोदसी अस्य अर्धम् प्रति ) रुद्र और रुद्रपत्नी, सेनापति और सेना, शासक वर्ग और शास्य प्रजाजन दोनों भी इसके आधे या समृद्ध ऐश्वर्य के बराबर हैं । वह (एकः) अकेला (अजुर्य:) कभी नाश को प्राप्त न होकर ( वीर्याय ) अपने बल वृद्धि के हित, ( भूय इत् वावृधे ) बहुत ही वृद्धि करे, और वह ( वसूनि ) नाना ऐश्वर्यों से बसे प्राणियों की ( दयते ) रक्षा करे ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषि: । इन्द्रो देवता ।। छन्दः – १, २, ३ निचृत्त्रिष्टुप् ४ पंक्ति: । ५ ब्राह्मो उष्णिक् ।। पञ्चर्चं सूक्तम् ॥
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