ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 55/ मन्त्र 1
एहि॒ वां वि॑मुचो नपा॒दाघृ॑णे॒ सं स॑चावहै। र॒थीर्ऋ॒तस्य॑ नो भव ॥१॥
स्वर सहित पद पाठआ । इ॒हि॒ । वाम् । वि॒ऽमु॒चः॒ । न॒पा॒त् । आघृ॑णे । सम् । स॒चा॒व॒है॒ । र॒थीः । ऋ॒तस्य॑ । नः॒ । भ॒व॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
एहि वां विमुचो नपादाघृणे सं सचावहै। रथीर्ऋतस्य नो भव ॥१॥
स्वर रहित पद पाठआ। इहि। वाम्। विऽमुचः। नपात्। आघृणे। सम्। सचावहै। रथीः। ऋतस्य। नः। भव ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 55; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 21; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 21; मन्त्र » 1
विषय - पूषा राजा ।
भावार्थ -
हे ( आ घृणे ) तेजस्विन् ! तू ( आ इहि ) हमें प्राप्त हो । हे ( नपात् ) कभी कुमार्ग में न जाने वाले ! तू ( वाम् ) हम दोनों को ( विमुचः ) विशेष रूप से दुःखों से मुक्त कर । हम ( सं सचावहै ) दोनों राजा प्रजा और स्त्री पुरुष परस्पर अच्छी प्रकार सम्बद्ध होकर रहें । तू ( नः ) हमारे (ऋतस्य ) सत्य व्यवहार, धन, यज्ञादि का ( रथी: ) रथवान् के समान सञ्चालक ( भव ) हो ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ पूषा देवता ॥ छन्दः – १, २, ५, ६ गायत्री । ३, ४ विराड् गायत्री ॥ षड्ज: स्वरः ॥ षडृर्चं सूक्तम् ॥
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