ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 55/ मन्त्र 4
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - पूषा
छन्दः - विराड्गायत्री
स्वरः - षड्जः
पू॒षणं॒ न्व१॒॑जाश्व॒मुप॑ स्तोषाम वा॒जिन॑म्। स्वसु॒र्यो जा॒र उ॒च्यते॑ ॥४॥
स्वर सहित पद पाठपू॒षण॑म् । नु । अ॒जऽअ॑श्वम् । उप॑ । स्तो॒षा॒म॒ । वा॒जिन॑म् । स्वसुः॑ । यः । जा॒रः । उ॒च्यते॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
पूषणं न्व१जाश्वमुप स्तोषाम वाजिनम्। स्वसुर्यो जार उच्यते ॥४॥
स्वर रहित पद पाठपूषणम्। नु। अजऽअश्वम्। उप। स्तोषाम। वाजिनम्। स्वसुः। यः। जारः। उच्यते ॥४॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 55; मन्त्र » 4
अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 21; मन्त्र » 4
अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 21; मन्त्र » 4
विषय - ऐश्वर्यवान् मित्र, आदेष्टा ।
भावार्थ -
हम लोग ( वाजिनं ) बलवान्, ज्ञानवान्, (अजाश्वम्) शत्रु को उखाड़ फेंकने वाले, अश्व सैन्य के स्वामी, (पूषणं) प्रजा के पोषक राजा को ( नु उप स्तोषाम ) अवश्य परस्पर समीप बैठकर विचार पूर्वक प्रस्तुत करें । ऐसे व्यक्ति को राजा बनावें ( यः ) जो ( स्वसुः = सु-असुः, स्व-सुः ) उत्तम प्राणवान्, सुखजनक प्राणवत् प्रिय, वा सुख से शत्रु को उखाड़ फेंकने में समर्थ, स्व = धनैश्वर्य को उत्पन्न करने में समर्थ होकर भी ( जारः ) उत्तम, उपदेष्टा, विद्वान् ( उच्यते ) कहा जावे । अथवा ( यः ) जो ( स्वसुः ) स्वयं शरण में आई प्रजा का, उषा को जीर्ण करने वाले सूर्य के समान सन्मार्ग में आदेष्टा कहा जाता है ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ पूषा देवता ॥ छन्दः – १, २, ५, ६ गायत्री । ३, ४ विराड् गायत्री ॥ षड्ज: स्वरः ॥ षडृर्चं सूक्तम् ॥
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