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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 64 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 64/ मन्त्र 3
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - उषाः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    वह॑न्ति सीमरु॒णासो॒ रुश॑न्तो॒ गावः॑ सु॒भगा॑मुर्वि॒या प्र॑था॒नाम्। अपे॑जते॒ शूरो॒ अस्ते॑व॒ शत्रू॒न्बाध॑ते॒ तमो॑ अजि॒रो न वोळ्हा॑ ॥३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वह॑न्ति । सी॒म् । अ॒रु॒णासः॑ । रुश॑न्तः । गावः॑ । सु॒ऽभगा॑म् । उ॒र्वि॒या । प्र॒थ॒नाम् । अप॑ । ई॒ज॒ते॒ । शूरः॑ । अस्ता॑ऽइव । शत्रू॑न् । बाध॑ते । तमः॑ । अ॒जि॒रः । न । वोळ्हा॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वहन्ति सीमरुणासो रुशन्तो गावः सुभगामुर्विया प्रथानाम्। अपेजते शूरो अस्तेव शत्रून्बाधते तमो अजिरो न वोळ्हा ॥३॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वहन्ति। सीम्। अरुणासः। रुशन्तः। गावः। सुऽभगाम्। उर्विया। प्रथानाम्। अप। ईजते। शूरः। अस्ताऽइव। शत्रून्। बाधते। तमः। अजिरः। न। वोळ्हा ॥३॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 64; मन्त्र » 3
    अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 5; मन्त्र » 3

    भावार्थ -
    ( गावः ) अश्व जिस प्रकार ( ऊर्विया प्रथानां भूमिम् प्राप्य रथं वहन्ति ) विस्तृत भूमि को प्राप्त होकर स्थादि को ढो ले जाते हैं और जिस प्रकार (गावः प्रथानाम् उर्वियाम् वहन्ति) किरण फैलती हुई उषा को धारण करते हैं उसी प्रकार (अरुणासः) तेजस्वी, (रुशन्तः) दुष्टों के वा दुष्ट भावों के नाश करने वाले, ( गावः ) ज्ञानवान् पुरुष, (उर्विया प्रथानाम्) पृथ्वी के समान विशाल, ( सुभगाम् ) सौभाग्यवती स्त्री को ( वहन्ति ) उद्वाहपूर्वक ग्रहण करें। (शूरः अस्ता इव शत्रून् अप-राजते) शूरवीर, अस्त्रकुशल धनुर्धारी के समान वह स्त्री तथा उसके साथ विवाह करने वाला पुरुष, अन्तःशत्रु काम, क्रोधादि तथा बाहरी शत्रुओं को भी दूर करे । (तमः बाधते ) जिस प्रकार उषा वा सूर्य प्रकट होकर अन्धकार को दूर करते हैं उसी प्रकार वे दोनों भी ( तमः ) दुःखदायी अज्ञान, शोक आदि अन्धकार को नाश करें । वह पुरुष ( अजिरः नवोढा ) वेग से जाने वाला अश्व जिस प्रकार रथ का बोझ ढोने में समर्थ होता है उसी प्रकार (अजिरः) जरा वा बृद्धावस्था और शरीर की दुर्बलता से रहित पुरुष ही ( नवोढा ) नयी वधू का विवाह करने वा गृहस्थ भार को उठाने में समर्थ हो ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ उषा देवता ॥ छन्दः – १, २, ६ विराट् त्रिष्टुप् । ३ त्रिष्टुप् । ४ निचृत्त्रिष्टुप् । ५ पंक्ति: ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ।।

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