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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 70 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 70/ मन्त्र 1
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - द्यावापृथिव्यौ छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    घृ॒तव॑ती॒ भुव॑नानामभि॒श्रियो॒र्वी पृ॒थ्वी म॑धु॒दुघे॑ सु॒पेश॑सा। द्यावा॑पृथि॒वी वरु॑णस्य॒ धर्म॑णा॒ विष्क॑भिते अ॒जरे॒ भूरि॑रेतसा ॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    घृ॒तव॑ती॒ इति॑ घृ॒तऽव॑ती । भुव॑नानाम् । अ॒भि॒ऽश्रिया॑ । उ॒र्वी । पृ॒थ्वी इति॑ । म॒धु॒दुघे॒ इति॑ म॒धु॒ऽदुघे॑ । सु॒ऽपेश॑सा । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । वरु॑णस्य । धर्म॑णा । विस्क॑भिते॒ इति॒ विऽस्क॑भिते । अ॒जरे॒ इति॑ । भूरि॑ऽरेतसा ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    घृतवती भुवनानामभिश्रियोर्वी पृथ्वी मधुदुघे सुपेशसा। द्यावापृथिवी वरुणस्य धर्मणा विष्कभिते अजरे भूरिरेतसा ॥१॥

    स्वर रहित पद पाठ

    घृतवती इति घृतऽवती। भुवनानाम्। अभिऽश्रिया। उर्वी। पृथ्वी इति। मधुदुघे इति मधुऽदुघे। सुऽपेशसा। द्यावापृथिवी इति। वरुणस्य। धर्मणा। विस्कभिते इति विऽस्कभिते। अजरे इति। भूरिऽरेतसा ॥१॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 70; मन्त्र » 1
    अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 14; मन्त्र » 1

    भावार्थ -
    भूमि सूर्य के दृष्टान्त से राजा प्रजा, माता पिता, वर यधू, वा स्त्री पुरुषों का कर्त्तव्य । जिस प्रकार ( द्यावापृथिवी ) सूर्य और भूमि ( घृतवती ) जल और तेज से युक्त हो तो ( भुवनानाम् अभिश्रिया ) सब उत्पन्न प्राणियों और लोकों को आश्रय देने वाले, (मधु-दुघे) जल और अन्न को प्रदान करनेवाले, (सु-पेशसा) उत्तम रूपयुक्त, (वरुणस्य धर्मणां वि-स्कभिते) सर्वश्रेष्ठ प्रभु, परमेश्वर या वायु के धारण सामर्थ्य से थमे हुए ( भूरि-रेतसा ) बहुत जल, उत्पादक बल, बल, तेज से युक्त होते हैं उसी प्रकार माता पिता और वर वधू दोनों ही ( घृतवती ) तेज, अन्न और हृदयों में प्रवाहित स्नेह से युक्त हों । वे दोनों ( भुवनानाम् अभिश्रिया ) उत्पन्न होने वाले प्रजाओं, पुत्रादि के सब प्रकार से आश्रय योग्य और ( उर्वी ) बहुत विशाल हृदय, ( पृथ्वी ) भूमिवत् आश्रयदाता ( मधु-दुधे ) मधुर वचन और अन्न को देने वाले ( सु-पेशसा ) उत्तम रूपवान, हों । वे दोनों ( वरुणस्य ) वरण करने वाले, वा वरण करने योग्य श्रेष्ठ पुरुष के ( धर्मणा ) धर्म से ( वि-स्कभिते ) विविध प्रकार से एक दूसरे का आश्रय होकर ( अजरे ) युवा युवति, जरा वस्था से रहित ( भूरिरेतसा ) बहुत वीर्यवान् होकर रहें ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ।। द्यावापृथिव्यौ देवते ॥ छन्दः–१, ५ निचृज्जगती । २, ३, ६ जगती ॥ षडृचं सूक्तम् ॥

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