ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 8/ मन्त्र 1
पृ॒क्षस्य॒ वृष्णो॑ अरु॒षस्य॒ नू सहः॒ प्र नु वो॑चं वि॒दथा॑ जा॒तवे॑दसः। वै॒श्वा॒न॒राय॑ म॒तिर्नव्य॑सी॒ शुचिः॒ सोम॑इव पवते॒ चारु॑र॒ग्नये॑ ॥१॥
स्वर सहित पद पाठपृ॒क्षस्य॑ । वृष्णः॑ । अ॒रु॒षस्य॑ । नु । सहः॑ । प्र । नु । वो॒च॒म् । वि॒दथा॑ । जा॒तऽवे॑दसः । वै॒श्वा॒न॒राय॑ । म॒तिः । नव्य॑सी । शुचिः॑ । सोमः॑ऽइव । प॒व॒ते॒ । चारुः॑ । अ॒ग्नये॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
पृक्षस्य वृष्णो अरुषस्य नू सहः प्र नु वोचं विदथा जातवेदसः। वैश्वानराय मतिर्नव्यसी शुचिः सोमइव पवते चारुरग्नये ॥१॥
स्वर रहित पद पाठपृक्षस्य। वृष्णः। अरुषस्य। नु। सहः। प्र। नु। वोचम्। विदथा। जातऽवेदसः। वैश्वानराय। मतिः। नव्यसी। शुचिः। सोमःऽइव। पवते। चारुः। अग्नये ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 8; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 10; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 10; मन्त्र » 1
विषय - वैश्वानर ।
भावार्थ -
( पृक्षस्य ) स्नेहवान्, विद्यादान आदि सम्बन्धों से सम्पर्क करने वाले, ( वृष्णः ) मेघ के समान ज्ञानोपदेश को देनेवाले, बलवान्, ( अरुषस्य ) तेजस्वी, रोष वा हिंसा से रहित ( जात-वेदसः ) उत्पन्न पदार्थों के ज्ञाता, समस्त धनों के स्वामी पुरुष के ( विदथा ) ज्ञानों और प्राप्ति साधनों और ( सहः ) सहनशीलता और बल की ( नु ) भी अवश्य हम ( प्र वोचम् ) स्तुति करें, और उत्तम गुणों वाले पुरुष को बल वृद्धि और ज्ञानों का उपदेश करें । ( वैश्वानराय अग्नये ) सबके नायक अग्रणी पुरुष की ( नव्यसी मतिः ) अति स्तुत्य बुद्धि और वाणी ( शुचिः ) अति पवित्र शुद्ध रूप से ( चारुः ) अति सुन्दर होकर (सोम इव पवते) ओषधि रस के तुल्य दुःखनाशक होकर प्रकट होती है।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ वैश्वानरो देवता ॥ — छन्दः — १, ४ जगती । ६ विराड् जगती । २, ३, ५ भुरिक् त्रिष्टुप् । ७ त्रिष्टुप् ।। सप्तर्चं सूक्तम् ॥
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