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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 21 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 21/ मन्त्र 1
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    असा॑वि दे॒वं गोऋ॑जीक॒मन्धो॒ न्य॑स्मि॒न्निन्द्रो॑ ज॒नुषे॑मुवोच। बोधा॑मसि त्वा हर्यश्व य॒ज्ञैर्बोधा॑ नः॒ स्तोम॒मन्ध॑सो॒ मदे॑षु ॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    असा॑वि । दे॒वम् । गोऽऋ॑जीकम् । अन्धः॑ । नि । अ॒स्मि॒न् । इन्द्रः॑ । ज॒नुषा॑ । ई॒म् । उ॒वो॒च॒ । बोधा॑मसि । त्वा॒ । ह॒रि॒ऽअ॒श्व॒ । य॒ज्ञैः । बोध॑ । नः॒ । स्तोम॑म् । अन्ध॑सः । मदे॑षु ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    असावि देवं गोऋजीकमन्धो न्यस्मिन्निन्द्रो जनुषेमुवोच। बोधामसि त्वा हर्यश्व यज्ञैर्बोधा नः स्तोममन्धसो मदेषु ॥१॥

    स्वर रहित पद पाठ

    असावि। देवम्। गोऽऋजीकम्। अन्धः। नि। अस्मिन्। इन्द्रः। जनुषा। ईम्। उवोच। बोधामसि। त्वा। हरिऽअश्व। यज्ञैः। बोध। नः। स्तोमम्। अन्धसः। मदेषु ॥१॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 21; मन्त्र » 1
    अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 3; मन्त्र » 1

    भावार्थ -
    (गो-ऋजीकं ) भूमि से सरलता से, न्याय धर्म के अनुसार प्राप्त होने वाला, ( देवं ) सुखप्रद वा व्यवहार योग्य ( अन्धः ) अन्न आदि पदार्थ ( असावि ) उत्पन्न होता है। ( अस्मिन् ) उस पर ( इन्द्रः ईम् उवोच) जिस प्रकार सूर्य या मेघ जल प्रदान करता और बढ़ाता है उसी प्रकार ( इन्द्रः ) ऐश्वर्यवान् राजा भी ( जनुषा ) स्वभावतः ( अस्मिन् नि उवोच ) उस अन्न के निमित्त सब प्रकार के उपायों को प्राप्त करावे और बढ़ावे। हे (हर्यश्व ) मनुष्यों में श्रेष्ठ ! हम ( यज्ञैः ) सत्कारों से ( त्वा बोधामसि ) तुझे तेरा कर्त्तव्य बतलाते हैं ( अन्धसः मदेषु ) अन्न आदि प्राणधारक पदार्थों के सुखों के निमित्त तू (नः) हमें (स्तोमम् ) स्तुत्यवचन का ( बोध ) बोध करा । उनके प्राप्त करने के लिये उत्तम २ उपाय और व्यवस्था उपदेश कर ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वसिष्ठ ऋषिः।। इन्द्रो देवता ॥ छन्दः - १, ६, ८,९ विराट् त्रिष्टुप् । २, १० निचृत्त्रिष्टुप् । ३, ७ भुरिक् पंक्तिः । ४, ५ स्वराट् पंक्तिः ।। दशर्चं सूक्तम ।।

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