ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 62/ मन्त्र 1
उत्सूर्यो॑ बृ॒हद॒र्चींष्य॑श्रेत्पु॒रु विश्वा॒ जनि॑म॒ मानु॑षाणाम् । स॒मो दि॒वा द॑दृशे॒ रोच॑मान॒: क्रत्वा॑ कृ॒तः सुकृ॑तः क॒र्तृभि॑र्भूत् ॥
स्वर सहित पद पाठउत् । सू॒र्यः॑ । बृ॒हत् । अ॒र्चींषि॑ । अ॒श्रे॒त् । पु॒रु । विश्वा॑ । जनि॑म । मानु॑षाणाम् । स॒मः । दि॒वा । द॒दृ॒शे॒ । रोच॑मानः । क्रत्वा॑ । कृ॒तः । सुऽकृ॑तः । क॒र्तृऽभिः॑ । भू॒त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
उत्सूर्यो बृहदर्चींष्यश्रेत्पुरु विश्वा जनिम मानुषाणाम् । समो दिवा ददृशे रोचमान: क्रत्वा कृतः सुकृतः कर्तृभिर्भूत् ॥
स्वर रहित पद पाठउत् । सूर्यः । बृहत् । अर्चींषि । अश्रेत् । पुरु । विश्वा । जनिम । मानुषाणाम् । समः । दिवा । ददृशे । रोचमानः । क्रत्वा । कृतः । सुऽकृतः । कर्तृऽभिः । भूत् ॥ ७.६२.१
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 62; मन्त्र » 1
अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 4; मन्त्र » 1
अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 4; मन्त्र » 1
विषय - सूर्यवत् तेजस्वी पुरुष के कर्त्तव्य । सब का भार अपने पर ले, समान रूप से देखे, उत्तम कर्म करे ।
भावार्थ -
( बृहत् सूर्यः पुरु अर्चींषि उत् अश्रेत् ) बड़ा भारी सूर्य जिस प्रकार बहुत से किरणों और तेजों को अपने में धारण करता है इसी प्रकार ( सूर्यः ) सूर्य के समान तेजस्वी पुरुष ( बृहत् ) बड़ा होकर ( मानुषाणाम् ) मनुष्यों के ( विश्वा जनिम ) समस्त जन-संघों को ( उत् अश्रेत्) अपने ऊपर धारण करे, उनका भार अपने कन्धे ले । और ( पुरु अर्चींषि ) बहुत से सरकारों को भी (उत् अश्रेत्) उत्तम रीति से प्राप्त करे । वह सूर्यवत् ( रोचमानः ) तेजस्वी एवं सबको प्रिय लगता हुआ ( दिवा ) कान्ति, न्याय, व्यवहार आदि से ( समः ) सब के प्रति समान ( ददृशे ) दीखे । वह ( क्रत्वा ) उत्तम बुद्धि से ( कृतः ) सम्पन्न होकर ( कर्तृभिः ) उत्तम कार्यकर्त्ताओं द्वारा ( सु-कृतः ) उत्तम कार्य करने में समर्थ ( भूत् ) हो ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वसिष्ठ ऋषिः ॥ १–३ सूर्यः। ४-६ मित्रावरुणौ देवते ॥ छन्दः–१, २, ६ विरात्रिष्टुप् । ३, ४, ५ निचृत्त्रिष्टुप् ॥ षडृचं सूक्तम् ॥
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