ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 96/ मन्त्र 3
भ॒द्रमिद्भ॒द्रा कृ॑णव॒त्सर॑स्व॒त्यक॑वारी चेतति वा॒जिनी॑वती । गृ॒णा॒ना ज॑मदग्नि॒वत्स्तु॑वा॒ना च॑ वसिष्ठ॒वत् ॥
स्वर सहित पद पाठभ॒द्रम् । इत् । भ॒द्रा । कृ॒ण॒व॒त् । सर॑स्वती । अक॑वऽअरी । चे॒त॒ति॒ । वा॒जिनी॑ऽवती । गृ॒णा॒ना । ज॒म॒द॒ग्नि॒ऽवत् । स्तु॒वा॒ना । च॒ । व॒सि॒ष्ठ॒ऽवत् ॥
स्वर रहित मन्त्र
भद्रमिद्भद्रा कृणवत्सरस्वत्यकवारी चेतति वाजिनीवती । गृणाना जमदग्निवत्स्तुवाना च वसिष्ठवत् ॥
स्वर रहित पद पाठभद्रम् । इत् । भद्रा । कृणवत् । सरस्वती । अकवऽअरी । चेतति । वाजिनीऽवती । गृणाना । जमदग्निऽवत् । स्तुवाना । च । वसिष्ठऽवत् ॥ ७.९६.३
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 96; मन्त्र » 3
अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 20; मन्त्र » 3
अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 20; मन्त्र » 3
विषय - वेदवाणी सरस्वती का वर्णन ।
भावार्थ -
( भद्रा सरस्वती ) सबका कल्याण करने वाली वह परमेश्वरी ( वाजिनी-वती ) बलयुक्त क्रिया और ऐश्वर्य, अन्नादियुक्त भूमि सूर्यादि की स्वामिनी, ज्ञानादियुक्त विद्वानों की स्वामिनी और ( अकव-अरी ) कभी कुत्सित मार्ग में न जाने देने वाली होकर सबके लिये ( भद्रम् कृणवत्) भला ही भला, कल्याण ही कल्याण करती है । वही ( चेतति ) सब को ज्ञान प्रदान करती है । वह ( जमदग्निवत् ) प्रज्वलित अग्नि के समान प्रकाश स्वरूप, ( गृणाना ) स्तुति की जाती है । और ( वसिष्ठवत् ) सब में सर्वोत्तम रूप से बसने वाले, जगन्निवासिनी के समान ( स्तुवाना ) स्तुति की जाती है।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वसिष्ठ ऋषिः॥ १—३ सरस्वती। ४—६ सरस्वान् देवता॥ छन्द:—१ आर्ची भुरिग् बृहती। ३ निचृत् पंक्तिः। ४, ५ निचृद्गायत्री। ६ आर्षी गायत्री॥
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