ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 23/ मन्त्र 2
दा॒मानं॑ विश्वचर्षणे॒ऽग्निं वि॑श्वमनो गि॒रा । उ॒त स्तु॑षे॒ विष्प॑र्धसो॒ रथा॑नाम् ॥
स्वर सहित पद पाठदा॒मान॑म् । वि॒श्व॒ऽच॒र्ष॒णे॒ । अ॒ग्निम् । वि॒श्व॒ऽम॒नः॒ । गि॒रा । उ॒त । स्तु॒षे॒ । विऽस्प॑र्धसः । रथा॑नाम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
दामानं विश्वचर्षणेऽग्निं विश्वमनो गिरा । उत स्तुषे विष्पर्धसो रथानाम् ॥
स्वर रहित पद पाठदामानम् । विश्वऽचर्षणे । अग्निम् । विश्वऽमनः । गिरा । उत । स्तुषे । विऽस्पर्धसः । रथानाम् ॥ ८.२३.२
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 23; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 9; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 9; मन्त्र » 2
विषय - प्रभु परमेश्वर की अग्निवत् स्तुति।
भावार्थ -
हे (विश्व-चर्षणे) संसार भर में प्रविष्ट, व्यापक एक ही महान् प्रभु को देखने वाले ! हे ( विश्व-मनः ) उसी सर्वव्यापक, कामना न करने वाले, उसमें निमग्न मन वाले ! तू ( गिरा ) वाणी से ( वि-स्पर्धतः ) विविध प्रकार की स्पर्द्धाएं करने वाले, नाना ऐश्वर्यों के इच्छुक जीव को ( स्थानां ) नाना रमण करने योग्य देहों के ( दामानं ) देने वाले (अग्निं) अग्निवत् तेजस्वी और व्यापक परमेश्वर की (उत) भी (स्तुपे) स्तुति कर।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - विश्वमना वैयश्व ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:—१, ३, १०, १४—१६, १९—२२, २६, २७ निचृदुष्णिक्। २, ४, ५, ७, ११, १७, २५, २९, ३० विराडुष्णिक्। ६, ८, ९, १३, १८ उष्णिक्। १२, २३, २८ पादनिचृदुष्णिक्। २४ आर्ची स्वराडुष्णिक्॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
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