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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 31 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 31/ मन्त्र 3
    ऋषिः - मनुर्वैवस्वतः देवता - ईज्यास्तवो यजमानप्रशंसा च छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    तस्य॑ द्यु॒माँ अ॑स॒द्रथो॑ दे॒वजू॑त॒: स शू॑शुवत् । विश्वा॑ व॒न्वन्न॑मि॒त्रिया॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तस्य॑ । द्यु॒ऽमाम् । अ॒स॒त् । रथः॑ । दे॒वऽजू॑तः । सः । शू॒शु॒व॒त् । विश्वा॑ । व॒न्वन् । अ॒मि॒त्रिया॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तस्य द्युमाँ असद्रथो देवजूत: स शूशुवत् । विश्वा वन्वन्नमित्रिया ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तस्य । द्युऽमाम् । असत् । रथः । देवऽजूतः । सः । शूशुवत् । विश्वा । वन्वन् । अमित्रिया ॥ ८.३१.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 31; मन्त्र » 3
    अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 38; मन्त्र » 3

    भावार्थ -
    ( सः ) वह पूर्वोक्त शक्तिशाली स्वामी (विश्वा) सब प्रकार के ( अमित्रिया ) शत्रुओं के किये छल कपटादि के कार्यों को ( वन्वन् ) नाश करता हुआ ( देव-जूतः ) विद्वानों से सेवित होकर ( शुशुवत् ) बहुत वृद्धि को प्राप्त होता है। ( तस्य ) उसका ( रथः ) रथ भी ( द्युमान् ) कान्तियुक्त और ( देव-जूतः ) अग्नि, वायु, विद्युत् आदि पदार्थों से चलने वाला ( असत् ) होता है। ( २ ) वह विद्वान् सब अभित्रभावों का नाश करता है, उसका ( रथः ) उपदेश ( देव-जूतः ) विद्याभिलाषियों से सेवित होकर ( घुमान् ) अति तेजस्वी हो प्रसिद्ध हो जाता और वह वृद्धि को प्राप्त होता है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - मनुर्वैवस्वत ऋषिः॥ १—४ इज्यास्तवो यजमानप्रशंसा च। ५—९ दम्पती। १०—१८ दम्पत्योराशिषो देवताः॥ छन्दः—१, ३, ५, ७, १२ गायत्री। २, ४, ६, ८ निचृद् गायत्री। ११, १३ विराड् गायत्री। १० पादनिचृद् गायत्री। ९ अनुष्टुप्। १४ विराडनुष्टुप्। १५—१७ विराट् पंक्तिः। १८ आर्ची भुरिक् पंक्तिः॥

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