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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 68 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 68/ मन्त्र 16
    ऋषिः - प्रियमेधः देवता - ऋक्षाश्वमेधयोर्दानस्तुतिः छन्दः - स्वराडार्चीगायत्री स्वरः - षड्जः

    सु॒रथाँ॑ आतिथि॒ग्वे स्व॑भी॒शूँरा॒र्क्षे । आ॒श्व॒मे॒धे सु॒पेश॑सः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सु॒ऽरथा॑न् । आ॒ति॒थि॒ऽग्वे । सु॒ऽअ॒भी॒शून् । आ॒र्क्षे । आ॒श्व॒ऽमे॒धे । सु॒ऽपेश॑सः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सुरथाँ आतिथिग्वे स्वभीशूँरार्क्षे । आश्वमेधे सुपेशसः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सुऽरथान् । आतिथिऽग्वे । सुऽअभीशून् । आर्क्षे । आश्वऽमेधे । सुऽपेशसः ॥ ८.६८.१६

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 68; मन्त्र » 16
    अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 4; मन्त्र » 1

    भावार्थ -
    ( आतिथिग्वे ) अतिथि के आदर सत्कारार्थ वाणी को विनय पूर्वक प्रयोग करने वाले, ( आर्क्षे ) शत्रु पर आक्रमण करने में कुशल, ( आश्वमेधे ) अश्व-सैन्य से शत्रुओं का संग्राम रूप यज्ञ करने वाले, वीर नायक के अधीन ( सुपेशसः ) उत्तम रूपवान्, ( सु-अभीशून् ) उत्तम लगामों से युक्त ( सु-रथान् ) उत्तम रथ वाले अश्वों के समान, उत्तम रूप धनादि से सम्पन्न, ( सु-अभीशून् ) अंगुलि वा सुअवयवों से सम्पन्न, ( सुरथान् ) उत्तम रथारोही, वा उत्तम देहवान् वीर, दृढ़, योद्धा पुरुषों को मैं (आददे) अपने राष्ट्र में और शासन में नियुक्त करूं।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - प्रियमेध ऋषिः॥ १—१३ इन्द्रः। १४—१९ ऋक्षाश्वमेधयोर्दानस्तुतिर्देवता॥ छन्दः—१ अनुष्टुप्। ४, ७ विराडनुष्टुप्। १० निचृदनुष्टुप्। २, ३, १५ गायत्री। ५, ६, ८, १२, १३, १७, १९ निचृद् गायत्री। ११ विराड् गायत्री। ९, १४, १८ पादनिचृद गायत्री। १६ आर्ची स्वराड् गायत्री॥ एकोनविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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