ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 7/ मन्त्र 31
कद्ध॑ नू॒नं क॑धप्रियो॒ यदिन्द्र॒मज॑हातन । को व॑: सखि॒त्व ओ॑हते ॥
स्वर सहित पद पाठकत् । ह॒ । नू॒नम् । क॒ध॒ऽप्रि॒यः॒ । यत् । इन्द्र॑म् । अज॑हातन । कः । वः॒ । स॒खि॒ऽत्वे । ओ॒ह॒ते॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
कद्ध नूनं कधप्रियो यदिन्द्रमजहातन । को व: सखित्व ओहते ॥
स्वर रहित पद पाठकत् । ह । नूनम् । कधऽप्रियः । यत् । इन्द्रम् । अजहातन । कः । वः । सखिऽत्वे । ओहते ॥ ८.७.३१
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 7; मन्त्र » 31
अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 24; मन्त्र » 1
अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 24; मन्त्र » 1
विषय - उन की तुलना से सज्जनों, वीरों के कर्तव्य ।
भावार्थ -
हे ( कध-प्रियः ) उत्तम कथा, स्तुति, उपदेश आदि से प्रसन्न होने वाले पुरुषो ! ( यद् इन्द्रम् अजहातन ) आप लोग शत्रुहन्ता और संशयच्छेत्ता वीर वा विद्वान् पुरुष वा प्रभु को त्यागते हो ऐसा भला कद् ह नूनं ) क्यों कर हो सकता है ? यदि छोड़ दिया करो तो भला (वः सखित्वे) आप लोगों की मित्रता में (कः ओहते) कौन विश्वास करे ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - पुनर्वत्सः काण्व ऋषिः॥ मरुतो देवताः॥ छन्दः—१, ३—५, ७—१३, १७—१९, २१, २८, ३०—३२, ३४ गायत्री । २, ६, १४, १६, २०,२२—२७, ३५, ३६ निचृद् गायत्री। १५ पादनिचृद् गायत्री। २९, ३३ आर्षी विराड् गायत्री षट्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
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